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Chola Samrajya
प्राचीन भारत में कई राजवंशों ने भारत की स्वर्ण भूमि पर राज किया। इन्हीं में से एक प्राचीन भारत का एक राजवंश था चोल राजवंश। 9 वीं शताब्दी से लेकर 13 वीं शताब्दी तक चोर के शासकों ने एक अत्यंत शक्तिशाली हिंदू साम्राज्य का निर्माण किया।
दक्षिण एशिया के सबसे बड़े हिस्से पर लगभग 400 साल तक चोल साम्राज्य के 20 राजाओं ने शासन किया था। ऐसे विशाल साम्राज्य वाले चोल साम्राज्य को रोमन एंपायर से भी विराट माना जाता है।
पंद्रह सौ साल तक साउथ ईस्ट एशिया पर राज करने वाले चोल साम्राज्य के विषय में आइए विस्तार से जानते हैं?
चोल साम्राज्य का उदय
850 ईसवी में कांची के पल्लवों के सामंत विजयाचोल ने इस चोल साम्राज्य की नींव रखी थी। तंजौर पर कब्जा करने के बाद चोल साम्राज्य के शासकों ने संपूर्ण पल्लव साम्राज्य को हराकर पूर्ण रूप से तमिल राज्य पर अपना कब्जा जमा लिया।
इसी के साथ समय आगे बढ़ता गया और 985 ईसवी में चोल साम्राज्य के शक्तिशाली राजा अरूमोलीवर्मन ने स्वयं को राजराजा प्रथम घोषित किया। चोल वंश के बने पहले राजा राजराजा प्रथम ने 30 साल में अपने साम्राज्य का काफी विस्तृत रूप में विस्तार कर लिया था। चोल वंश के पहले प्रतापी राजा राजराजा प्रथम ने पांडेय और केरल के राजाओं को हराकर अपनी विजय घोषित की।
राजराजा प्रथम ने लौह एवं रक्त की नीति अपनाई थी। जिसके फलस्वरूप उन्होंने श्रीलंका के शासक महिंद पंचम को पराजित करके मामुण्डी चोल मण्डलम नामक नए प्रांत को भी स्थापित करने में सफलता हासिल की। इसके साथ ही उसकी राजधानी भी बनवाई थी। 1012 ईसवी में राजराजा प्रथम ने कंबोडिया में सबसे बड़ा हिंदू मंदिर अंकोरवाट का निर्माण कराने वाले राजा सूर्यवर्मन के साथ भी कूटनीतिक संबंध बनाएं।
राजेंद्र प्रथम ने किया चोल साम्राज्य का विस्तार
अपने पिता राजराजा प्रथम की साम्राज्य नीति को आगे बढ़ाते हुए लगभग 1012 ईसवी के करीब राजेंद्र प्रथम ने चोल साम्राज्य के उत्तराधिकारी बनने का दायित्व निभाया। चोल साम्राज्य के विस्तार में राजेंद्र प्रथम का नाम प्रमुख भूमिका के रूप में लिया जाता रहा है। अंडमान निकोबार द्वीप समूह, मालद्वीप, मलेशिया, श्री लंका, इंडोनेशिया और दक्षिणी थाईलैंड तक चोल साम्राज्य की सीमा का विस्तार किया गया।
चोल साम्राज्य का समुद्री विस्तार
प्राचीन समय में दो देशों के बीच व्यापार का मुख्य गंतव्य साधन समुद्री सीमाओं से गुजरता था। ऐसे में चोल साम्राज्य जब किसी देश से व्यापार करता था तब माल से लदे हुए जहाज को हिंद महासागर होकर चीन तथा जापान व दक्षिण पूर्व एशियाई देशों तक जहाज को ले जाया करते थे।
चोल साम्राज्य के शक्तिशाली शासक राजेंद्र प्रथम ने समुद्री मार्गों पर भी अपना कब्जा जमाने की जंग शुरु कर दी थी। समुद्र जीतने के लिए निकले चोल साम्राज्य के शासक राजेंद्र प्रथम ने अपनी नौ सेना को मजबूत किया। लड़ाकू जहाजों में छोटी गश्ती वाले जहाजों के समूह को राज्य के चारों ओर तैनात कर दिया गया।
चोल साम्राज्य के शासक ने अपने व्यापारिक रास्ते को भी सुरक्षित किया। लेकिन दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों के साथ चोल राजवंश के संबंध काफी अच्छी थी लेकिन इसके बावजूद चोल साम्राज्य की नाव को वहां लूट लिया जाता था। उन्हें सबक सिखाने के लिए राजेंद्र प्रथम ने 1025 ईसवी में समुद्र के पास जाकर जावा और सुमात्रा द्वीप पर अपना आधिपत्य जमाया।
इसी के पश्चात चोल साम्राज्य की नौसेना ने मलेशिया पर आक्रमण करके बंदरगाह कंडाराम पर भी अपना कब्जा कर लिया। किसकी बात चोल साम्राज्य पूर्ण रूप से समुद्री व्यापारिक मार्ग पर अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया।
राजेंद्र प्रथम के बाद 1044 ईसवी में उनका पुत्र राज सिंहासन पर बैठा। जिसने भी चोल साम्राज्य के विस्तार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। परंतु कोप्पम में चालुक्य राजा सोमेश्वर द्वितीय के साथ लड़ाई में इनकी मौत हो गई। जिसके बाद उनके भाई राजेंद्र द्वितीय ने राजगद्दी संभाली।
नौसेना थी चोल साम्राज्य की असल ताकत
चोल साम्राज्य में चोल की नौसेना को सर्वाधिक शक्तिशाली नौसेना में से एक माना जाता था। यह भी कहा जाता था कि चोल साम्राज्य में अपने साम्राज्य का विस्तार मुख्य तौर पर नौसेना की मदद से ही किया था। नौसेना की खास बात यह थी कि इसमें अधिक संख्या में महिलाएं काम किया करती थी। नौसेना में उनकी भूमिका अहम थी और युद्ध होने पर भी यह अपनी उपस्थिति अदा करती थी।
इसके साथ ही नौसेना के पास युद्ध पोतों के निर्माण के विषय में एक समृद्ध ज्ञान था जिसके बल पर शत्रु चोल साम्राज्य के समक्ष घुटने टेकने पर मजबूर हो जाया करते थे। चोर नौसेना की प्रमुखता इतनी बड़ी है कि साल 2017 में भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी द्वारा भी अपने मुख से उसका गुणगान किया गया था।
यह नौसेना राजेंद्र चोल द्वारा बनाई गई थी। जो कि एक पेशेवर सेना थी। राजेंद्र प्रथम चोल की सेना के कुल चार हिस्से थे – जिसमें पहली घुड़सवारी, दूसरी हाथी की सेना, तीसरी पैदल सेना और चौथी थी नौसेना जिसमें प्रमुख भूमिका मजबूत जहाज और सैनिक हाथी हुआ करती थी।
300 ईसवी पूर्व में जन्मा चोल राजवंश 848 ईसवी में मध्यकालीन युग में पहुंचा तथा सन् 1279 में इस राजवंश का अंत हो गया। चोल साम्राज्य का क्षेत्रफल 1300000 किमी तक फैला हुआ था।चोल साम्राज्य क्षेत्र तक फैला था वर्तमान समय में आज भारत, श्रीलंका, बांग्लादेश, वर्मा, थाईलैंड, इंडोनेशिया, कंबोडिया, मालदीव, सिंगापुर, वियतनाम शामिल हैं।
चोलों के अभिलेखों से ज्ञात होता है कि यह एक संगठित साम्राज्य था। राज्य काल में इनका शासन जनसभाओं द्वारा होता था। चोल साम्राज्य की शासन व्यवस्था स्वतंत्र थी जिसमें स्वयं सम्राट आदि भी हस्तक्षेप नहीं किया करते थे।
अपनी बुद्धिमता और शक्तिशाली सेना के साथ चोल राजवंश के शासकों ने पूरे दक्षिण पूर्व एशिया पर अपना वर्चस्व स्थापित किया था। 993 ईसवी में राजेंद्र प्रथम ने श्रीलंका पर आक्रमण किया। इसके बाद श्रीलंका पर भी अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया था। जावा, इंडोनेशिया, मलेशिया, वर्मा, वियतनाम, थाईलैंड, सिंगापुर तक चोल साम्राज्य कब्जा करने की जंग शुरू कर दी थी।
आशा करते है आपको यह ज्ञानवर्धक जानकारी अवश्य पसंद आई होगी। ऐसी ही अन्य धार्मिक और सनातन संस्कृति से जुड़ी पौराणिक कथाएं पढ़ने के लिए हमें फॉलो करना ना भूलें।
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