आखिर महिलाओं के साथ हो रहा शोषण किस युग में जाकर थमेगा?

आखिर महिलाओं के साथ हो रहा शोषण किस युग में जाकर थमेगा?

सृष्टि की रचना के उपरांत एक अदृश्य ताकत ने ही स्त्री और पुरुष को बनाया था क्योंकि प्रकृति के नियमानुसार दो विपरित चीज़ें एक दूसरे को सदैव आकर्षित करती हैं। इस दौरान उसने पुरुष को बलशाली होने का वरदान दिया। तो वहीं महिलाओं को कोमल हृदय प्रदान दिया।

साथ ही प्रकृति के हस्तक्षेप के बाद स्त्री का शरीर पुरुष के शरीर से अलग निर्मित किया गया और दोनों को शारीरिक तौर पर अलग शक्तियां प्रदान की गई ताकि वो धरती पर एक नया जन्म दे सकें। हालांकि धरती पर मानव सभ्यता की यह कहानी लाखों करोड़ों वर्षों पुरानी है। इतना ही नहीं आरम्भिक मानव को खानाबदोश कहा जाता था और उसे आज के मानव की तरह रोटी, कपड़ा, मकान इत्यादि का कोई ज्ञान नहीं था।

अब जैसे-जैसे मानव सभ्यता का विकास हुआ, वैसे वैसे स्त्री और पुरुष ने मिलकर परिवार नाम की संस्था का निर्माण किया। जिसमें पुरुष को उसकी सामर्थ्य के अनुसार बाहर जाकर कार्य करने का जिम्मा सौंपा गया तो वहीं महिलाओं को घर पर रहकर बच्चों को पालने, घर संभालने इत्यादि कार्यों की जिम्मेदारी दी गई।

समय बदला तो अब मानव को जीवन जीने के लिए सिर्फ रोटी, कपड़ा और मकान ही आवश्यक नहीं था, बल्कि शक्ति प्रदर्शन के लिए युद्ध भी होने लगे। जहां युद्ध में हारने वाले को अपनी स्त्री तक जीतने वाले को सौंपनी पड़ती थी, जोकि स्त्री को अपनी दासी बनाकर रखता था।

इतना ही नहीं मानव के मध्यकालीन इतिहास की ओर नजर घुमाएं तो पाएंगे कि वहां भी स्त्री को सबसे निम्न श्रेणी का माना जाता था। हालांकि वैदिक युग आते आते महिलाओं की स्थिति में सुधार हुआ। लेकिन आडंबरों की कमी वहां भी नहीं थी। जिसके बाद स्त्री को कभी सती होना पड़ा तो कभी उसे पुरुषों की नीच दृष्टि का शिकार होना पड़ा।

हालांकि युग युगांतर स्त्री के मान सम्मान को ठेस पहुंचाई गई हैं। ऐसे में महाभारत की लड़ाई इसी का परिणाम है। तो हम ये नहीं कह सकते कि कलियुग में ही स्त्री का शोषण होता आ रहा है। प्राचीन समय में भी स्त्री के मान सम्मान को चोट पहुंची हैं। लेकिन नवयुग में अनेकों महा पुरुषों के प्रयास के बाद स्त्री के हक में फैसले लिए जाने लगे।

और धीरे धीरे महिलाओं की स्थिति में सुधार भी हुआ। अब महिलाएं घरों से बाहर निकलकर पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर आगे बढ़ रही हैं। हालांकि यह सब अभी भी निचले स्तर से लागू नहीं हुआ है। लेकिन इन सबके जिम्मेदार पुरुष ही नहीं है बल्कि महिलाएं भी है क्योंकि यदि बात करें तो राजघरानों में एक राजा की अनेकों रानियां हुआ करती थी, लेकिन उन्हें इस बात से अधिक इस बात की चिंता रहती थी कि राजा जी सबसे अधिक उन्हीं से प्रेम किया करते हैं।

जिसके चलते वह प्रेम और सामाजिक रीति के तौर पर दूसरी स्त्री को भी बर्दाश्त कर लेती थी। तो वहीं जब कुछ महिलाओं के हाथ में पारिवारिक और सामाजिक ताकत आ गई तो उन्होंने स्वयं स्त्रियों का शोषण शुरू कर दिया। जिसका घरेलू हिंसा, दहेज प्रथा इत्यादि प्रत्यक्ष उदाहरण है।

और अब जब लड़कियां पढ़ने और काम करने के लिए बाहर निकल आई है तो उन्हें दोहरी जिम्मेदारियां निभानी पड़ती है। घर में उसे एक मां, बेटी, बहू, बहन, भाभी, बीवी का किरदार निभाना पड़ता है और बाहर उसे अन्य सामाजिक किरदार निभाने पड़ते हैं। देखा जाए तो पुरुष की जिम्मेदारी आज भी वहीं हैं जो पहले थी। ना तो उनके जीवन स्तर में कोई बदलाव आया और ना ही व्यवहार में।

तमाम जिम्मेदारियों के निर्वाहन के बाद भी सारी बंदिशें महिलाओं पर हैं, उसे घर पर रहकर घर वालों के प्रति अपने कर्तव्य को बखूबी निभाना है, वरना उसका घर में रहना दूभर हो जाएगा अब चाहे वह उसका मयाका हो या ससुराल।

दूसरी ओर बाहर जाकर उसे काम भी करना है और खुद की इज्जत को भी बचाए रखना है। लेकिन इसे स्त्री समाज का दुर्भाग्य कहें या किस्मत, वह सशक्त होने के बावजूद भी पुरुष के बल के आगे खुद की इज्जत को बचाए रखने में असमर्थ है क्योंकि जिस इज्जत को बचाने के लिए यह पुरुष प्रधान समाज उसे शिक्षा देता है, असल में वही उसकी इज्जत के साथ खेलता है। वरना स्त्री स्त्री के सामने कभी लज्जित महसूस नहीं करती है, ये तो शुरू से पुरुष मानसिकता का समाज पर आधिपत्य स्थापित है कि वह स्त्री को मानसिक, शारीरिक और सामाजिक तौर पर खुद से अलग समझता है और फिर उसकी इज्जत की नुमायांदगी करता है।


अंशिका जौहरी

मेरा नाम अंशिका जौहरी है और पत्रकारिता में स्नातकोत्तर कर रही हूं। मुझे सामाजिक चेतना से जुड़े मुद्दों पर बेबाकी से लिखना और बोलना पसंद है।

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