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Maya ke raste bhi paa sakte hain Bhagwan?
संसार में भगवान अलौकिक हैं और ज्ञान लौकिक। इस प्रकार ईश्वर को उच्च स्तर पर जानना और पाना तनिक भी सरल नहीं है। चूंकि भगवान को पाने के लिए भगवान में लीन होना जरूरी है लेकिन मोह, माया, लालच व अहम में फंसा मनुष्य कभी ईश्वर की सच्ची साधना नहीं कर पाता। ऐसे में यह जानना अत्यंत कठिन है कि क्या माया के रास्ते पर भी भगवान को पा सकते हैं?
विभिन्न धार्मिक ग्रंथों में भगवान कहते हैं कि उन्हें पाना मन, बुद्धि व इन्द्रियों से परे है। इस संसार में अपना कर्म प्रथम श्रेणी में रखकर भी ईश्वर की आराधना का फल प्राप्त किया जा सकता है। जन्म से लेकर मृत्यु तक मनुष्य अपने धर्म, कर्म, समाज व अनेक मान्यताओं से जुड़ा रहता है।
दुनिया में आते ही उसका संबंध माया से भी हो जाता है। ऐसे माया के जाल से निकलकर भगवान तक पहुंचना तो सरल नहीं है। लेकिन इस माया चक्र में रहकर हम ईश्वर को पाने का सफल प्रयास कर सकते हैं।
आइए सर्वप्रथम जान लेते हैं कि आखिर माया क्या है? माया का अस्तित्व क्या है? तथा माया चक्र में रहकर भगवान को पाना कठिन क्यों है?
यूं तो माया का अर्थ है एक काल्पनिक दुनिया। यानि माया का अनुभव किया जा सकता है लेकिन उसका कोई अस्तित्व नहीं है। आभासी होकर भी माया की दुनिया सच प्रतीत होती है। संसार में जो कुछ भी है सब माया है। मनुष्य के जीवन का आधार माया है। माया का अर्थ है भ्रम।
भ्रम से ही दुख की उत्पत्ति होती है। माया के अर्थ में मात्र धन को शामिल नहीं किया जा सकता है। जो कुछ भी हमें हमारे लक्ष्य तक पहुंचने से रोकता है वह माया है। किसी भोग में, किसी वस्तु में, किसी रिश्ते में, किसी के स्वाद में, किसी के दुष्ट कर्मों में, किसी के लालच में, किसी स्थान आदि में मन अटकना ही तो माया है।
गीता में लिखा है
न मां दुष्कृतिनो मूढा: प्रपद्यन्ते नराधमा:
माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिता:।।
गीता 7/15।।
अर्थात् – माया ने जिनका ज्ञान हर लिया है ऐसे दुष्ट कर्म करने वाले मूढ़, नरों में अधम, और आसुरी स्वभाव वाले मेरी शरण में नहीं आते।
वास्तव में, माया ब्रह्म (ईश्वर) की एक शक्ति है, लेकिन ब्रह्म पर माया का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। यह माया सदा सत्य को ढक देती है, जिससे चलते हम वास्तविक सत्य (ईश्वर) से अनभिज्ञ रहते हैं। मनुष्य का माया में पड़कर सत्य मार्ग से भटकना स्वाभाविक है, साथ ही ईश्वर की प्राप्ति के मार्ग में भी माया रोड़ा बनकर आती है लेकिन जो मनुष्य माया के जाल से बचकर भगवान की ओर बिना रुके आगे बढ़ता रहता है, उसे निसंदेह भगवान का साथ प्राप्त होता है।
माया और भगवान के बीच है मन
हालांकि संसार एक माया है और यही सत्य मानकर संसार को छोड़कर ईश्वर की खोज में निकल पड़ते है। लेकिन हमें यह समझना होगा कि हमारा सबसे बड़ा शत्रु तथा सबसे बड़ा मित्र हमारा मन है। माया के जाल में फंसना और निकलना सब कुछ हमारे मन पर ही तो निर्भर करता है।
दरअसल, मन जिसमें रम जाता है, जीवन का हर कण उसको समर्पित हो जाता है। चूंकि इस सांसारिक माया को नष्ट करना नामुमकिन है, क्योंकि यह ब्रह्म का ही एक रूप है। इसलिए अपने मन को वश में करके ईश्वर को पाना ही एकमात्र साधन है।
माया यानि इस भौतिक सुख सुविधाओं से युक्त जगत में रहकर भगवान में मन लगाना एक साधारण मनुष्य के लिए मुश्किल है। परंतु जब आप भगवान के अस्तित्व को जान लेते हैं और उनके प्रति सच्ची आस्था रखते हैं तब आप उनसे सच्चा प्रेम कर पाने में सक्षम हो जाते हैं। इसके बाद माया का जाल आपको अपने वश में कर पाने में असमर्थ हो जाता है।
माया में रहकर भी पा सकते है ईश्वर ?

भगवान का रूप अत्यंत सरल है। सरल है इसलिए क्योंकि यह सत्य है और सत्य अत्यंत सरल है। लेकिन कठिन है तो सत्य को पहचानना व उसको अपनाना। माया सत्य को ढक देता है। पर जब माया से दूर होकर सत्य के करीब आते हैं तो ईश्वर प्राप्त होते हैं। बात आती है कि माया में रहकर क्या भगवान तक पहुंचा जा सकता है?
भगवान को वहीं पा सकता है जो सच्चा है यानि जो छल, कपट, द्वेष, ईर्ष्या, अहम आदि पाखंडों से दूर रहता है। गीता में लिखा है कि माया ईश्वर का ही स्वरूप है। यह भगवान की ही एक शक्ति है। माया के संपूर्ण कार्य भगवान के बल पर ही संपादित होते है। अतः बिना भगवान के माया से निकलना भी असभंव है। माया और भगवान के बीच भी भगवान की ही शक्ति है।
गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं,
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्तिते।।
गीता 7/14
“माया मेरी दैवी शक्ति है। इसके तीन गुण हैं। कोई भी अपने बल पर इसके पार नहीं जा सकता। केवल वे लोग जो मेरे शरणागत होकर मेरी कृपा के पात्र बनते हैं वही इस माया के सागर को पार कर पाते हैं।”
इस संसार में रहकर भी कई ऐसे महान लोग हुए हैं जिन्होंने भगवान को पाने में सफलता प्राप्त की। माया में रहकर भी भगवान को पाने वाले भक्तों में उदाहरण हैं दुष्ट व पापी हिरणकश्यपु का पुत्र प्रहलाद, जो कि माया के बीच रहकर भी भगवान की प्राप्ति करता है।
उसी प्रकार रावण की मायावी लंका में रहकर भी विभीषण ने भगवान श्रीराम के कमल रूपी चरणों को प्राप्त किया। इससे यह स्पष्ट है कि माया के जाल में रहकर भी ईश्वर को पा सकते हैं। लेकिन आवश्यकता है तो भगवान के प्रति सच्ची आस्था व विश्वास की।
भगवान सदा माया के उस पार खड़े हैं, हम कह सकते हैं कि माया सच्चे भक्तों की परीक्षा है, जिसमें पास होकर भगवान तक पहुंचा जाना संभव है। ऐसे में भगवान के भक्त पर माया का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। साथ ही वह माया के आवेश में भी भगवान को पाने में सक्षम होता है।
आशा करते है आपको यह ज्ञानवर्धक जानकारी अवश्य पसंद आई होगी। ऐसी ही अन्य धार्मिक और सनातन संस्कृति से जुड़ी पौराणिक कथाएं पढ़ने के लिए हमें फॉलो करना ना भूलें।
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