भारतीय भूमि को समय-समय पर अनेक महान् व्यक्तियों ने अपने जन्म से पावन किया है। यही कारण है कि भारत सम्पूर्ण दुनिया में अपनी अद्भुत सभ्यता और संस्कृति के साथ-साथ कई विशेष लोगों की जन्मस्थली के तौर पर भी जाना जाता है
। इसी संदर्भ में आज हम आपको बताने वाले हैं चीन में भगवान के अवतार के तौर पर पूजे जाने वाले गुरु बोधिधर्म के बारे में।
आप सोच रहे होंगे कि हमने लेख के आरंभ में आपको भारत भूमि पर जन्मे किसी महान व्यक्ति के बारे में बताने की बात कही थी, लेकिन आपको जानकर आश्चर्य होगा कि जिस व्यक्ति को गुरु के तौर पर पड़ोसी देश चीन में भगवान का अवतार मानकर पूजा जाता है,
उनका जन्म दक्षिण भारत में ही हुआ था, लेकिन उनके ज्ञान का प्रकाश भारत में कम बल्कि चीन में अधिक प्रसारित हुआ था। तो चलिए जानते हैं…क्या है बोधिधर्म का इतिहास और कैसे ये भारत में जन्मे होने के बावजूद चीन में हुए थे लोकप्रिय….
भारत में आज जैसे स्वामी विवेकानंद और दयानंद जी को धर्म प्रचारक के तौर पर जाना जाता है, तो वहीं चीन में बौद्ध धर्म के प्रचारक के तौर पर बोधिधर्म प्रचलित हैं। जिन्होंने काफी कम उम्र में ही गौतम बुद्ध को अपने जीवन का सार मान लिया था।
विषय सूची
बोधिधर्म कौन थे?
5वीं या 6वीं शताब्दी के मध्य भारत के दक्षिण प्रांत में मौजूद पल्लव राज्य के एक परिवार में बोधिधर्म का जन्म हुआ था। जिनके पिता सुगंध कांचीपुरम के प्रसिद्ध राजा थे। बोधिधर्म को बचपन से ही सांसारिक मोह माया से अधिक लगाव नहीं था, यही कारण था कि उन्होंने बहुत ही कम उम्र (22 वर्ष की आयु) में ही संन्यास ले लिया था और बौद्ध भिक्षुक बन गए थे।
जबकि वे चाहते तो अपने जन्म के अनुसार शाही जीवन जीते, लेकिन उन्होंने बौद्ध भिक्षु बनने का फैसला लिया। इसकी शुरुआत कुछ ऐसे हुई कि बोधिधर्म को बचपन से सांस लेने में तकलीफ होती थी, जिसके चलते वह ध्यान और योग आदि का सहारा लिया करते थे, कहते हैं यही से बोधिधर्म के बौद्ध भिक्षु बनने की राह स्पष्ट हुई होगी।
इन्होंने गौतम बुद्ध के परम शिष्य महाकश्यप से ही बौद्ध धर्म की शिक्षा ग्रहण की थी। जिसके लिए बोधिधर्म बौद्ध भिक्षु की भांति मठों में जीवन व्यतीत किया करते थे। इस दौरान इन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन अनुशासित होकर जिया, यही कारण है कि काफी कम उम्र में ही बोधिधर्म बौद्ध धर्म के प्रवर्तक बन गए।
बौद्ध धर्म की शिक्षा लेने से पहले इनका नाम बौद्धि तारा था, लेकिन बौद्ध धर्म का संपूर्ण विश्व में प्रचार-प्रसार के चलते वह बोधिधर्म के नाम से पहचाने जाने लगे।
जब चीन के लोगों ने बोधिधर्म को मान लिया था भगवान

इन्होंने बौद्ध भिक्षु बनकर चीन, जापान, कोरिया समेत अनेक एशियाई देशों की यात्रा की। जहां इन्होंने बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार का अनूठा प्रयोग किया। जिन्हें चीन में सर्वाधिक मान्यता मिली, अर्थात् चीनी लोग गुरु बोधिधर्म को ही चीन में बौद्ध धर्म का प्रवर्तक मानकर पूजते हैं।
चीनी लोगों ने बोधिधर्म को एक उदार चरित्र, लंबी दाढ़ी और गहरी आंखों वाला व्यक्ति बताया है, जोकि चीन में बौद्ध धर्म को लाने वाले पहले बौद्ध भिक्षु थे। इस प्रकार, सम्पूर्ण विश्व में बोधिधर्म बौद्ध धर्म के 28वें गुरु के तौर पर जाने जाते हैं। तो वहीं, चीन में ध्यान और ज्ञान की परंपरा का सूत्रपात बोधिधर्म ने ही किया था, जिस कारण चीन की जनता इन्हें भगवान का अवतार मानकर पूजती है।
मार्शल आर्ट में भी बोधिधर्म का रहा विशेष योगदान
बोधिधर्म ने ना केवल ध्यान की शक्ति पर विजय हासिल की थी, बल्कि वह मार्शल आर्ट में भी निपुण थे। कहा जाता है कि मार्शल आर्ट (कालारिपयट्टू) की कला ऋषि अगस्त्य से होती हुई बोधिधर्म पर आकर ठहरी।
यानि बोधिधर्म ने ध्यान और योग की शक्ति के अलावा मार्शल आर्ट का प्रयोग भी किया और इसे भी चीन समेत अनेक देशों में सर्वत्र फैलाने में अपना योगदान दिया।
यही कारण है कि चीन में मार्शल आर्ट को जैन बुद्धिज्म के नाम से भी जाना जाता है और बोधिधर्म को आधुनिक मार्शल आर्ट के जनक की उपाधि दी जाती है।
जब 22 वर्ष की उम्र में किया था बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार
एक बार चीन के एक राजा जिसका नाम वू था, ने अपने देश में बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार करने के लिए भारत से किसी बौद्ध भिक्षु को बुलाने की इच्छा जाहिर की।
काफी लंबे समय तक इंतजार के बावजूद भी राजा को कोई बौद्ध भिक्षु भारत से चीन की यात्रा पर आता हुआ नहीं दिखा, लेकिन राजा को उम्मीद थी और इसलिए वो बौद्ध भिक्षु के स्वागत की तैयारियां पूरी रखते थे।
जिसके बाद जब राजा बूढ़ा हो चला, तब उसके पास दो बौद्ध भिक्षुओं के भारत से चीन आने का संदेश आया। तब राजा ने उन दो बौद्ध भिक्षुओं का स्वागत स्वयं सीमा पर जाकर किया, लेकिन उसे वहां जाकर ही इस बात का पता लगा कि ये बौद्ध भिक्षु वयस्क थे।
आपको बता दें कि ये दो बौद्ध भिक्षु और कोई नहीं, बल्कि बोधिधर्म और उनके एक शिष्य थे। जोकि उस दौरान केवल 22 वर्ष की आयु के थे और समुद्री मार्ग से चीन आए थे।
बोधिधर्म सर्वप्रथम चीन के केंटन बंदरगाह पर उतरे थे। जहां से ही चीन के राजा ने उनका आदर सत्कार किया था। साथ ही उनको आयु में छोटा समझकर उनसे साधारण से प्रश्न किए थे। ऐसे में राजा ने जब बोधिधर्म से सृष्टि का स्रोत पूछा? तब बोधिधर्म ने इसे मूर्खतापूर्ण प्रश्न करार दिया।
जिसके बाद राजा ने बोधिधर्म से पूछा कि जैसे मैंने जीवनभर दान पुण्य किया है…तो क्या मुझे मुक्ति मिलेगी। बोधिधर्म ने राजा के इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा कि तुम दु:ख भोगोगे।
यहां राजा जोकि बोधिधर्म के उत्तर का अर्थ नहीं समझ पाया, क्योंकि बोधिधर्म का तात्पर्य ये था कि कोई व्यक्ति जो कुछ पाने के उद्देश्य से देने में विश्वास रखता है, वह जीवनभर दु:खी रहता है, परंतु राजा ने बोधिधर्म का मर्म समझे बिना ही उन्हें देश निकाला दे दिया। जिसके बाद बोधिधर्म पर्वतों पर जाकर रहने लगे और उन्होंने वहां अपने कई शिष्य बना लिए।
बोधिधर्म ने पर्वत पर रहते हुए ही ध्यान करना आरंभ कर दिया और वे अल्प आयु से ही बौद्ध धर्म के प्रवर्तक के तौर पर स्थापित हो गए।
बोधिधर्म ने किया महामारी को दूर और बचाई लोगों की जान
एक बार जब बोधिधर्म चीन के नानजिंग गांव में गए। तब वहां एक ज्योतिष ने भविष्यवाणी कर दी थी कि गांव के लोग जल्द ही किसी विपदा का सामना करेंगे। जिस पर जैसे ही बोधिधर्म वहां पहुंचे तो गांव वालों ने उन्हें ही विपदा समझ लिया। जिसके चलते गांववालों ने उनका तिरस्कार करके उन्हें गांव से बाहर निकाल दिया।
इसके बाद पूरे गांव में महामारी फैल गई, तब गांव वालों को अपनी गलती का एहसास हुआ और उन्होंने महामारी को समाप्त करने का उपाय ढूंढने के लिए बोधिधर्म से मदद मांगी। जिस पर बोधिधर्म ने तरह-तरह की जड़ी बूटियों को तैयार करके गांव के लोगों को महामारी से निपटने में मदद की।
इसी क्षण इस गांव पर लुटेरों ने आक्रमण कर दिया। जिससे गांव वालों की रक्षा करने के लिए बोधिधर्म ने मार्शल आर्ट का प्रयोग किया और लुटेरों को जोरदार पटखनी दी। तभी से चीन के इस गांव के लोग मार्शल आर्ट को युद्धकला के तौर पर सीखने लगे और मार्शल आर्ट का चलन देखते ही देखते चीन में सर्वाधिक हो गया।
बोधिधर्म ने ही किया था चाय का आविष्कार
बोधिधर्म जब चीन में पर्वतों पर रहकर बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार कर रहे थे। तब एक बार जब उनके बौद्ध भिक्षु शिष्य ध्यान करते-करते सो गए, तब बोधिधर्म ने अपनी आंख की पलकें काट दी थी। कहते हैं उन्होंने ऐसा इसलिए किया ताकि आगे से किसी का ध्यान भंग न हो।
कहा जाता है कि जिस स्थान पर बोधिधर्म ने अपनी आंख की पलकें काटकर फेंक दी थी, उस स्थान पर आगे जाकर चाय की बड़ी-बड़ी पत्तियां उगी और जिसे बौद्ध भिक्षुओं ने ध्यान अभ्यास के दौरान ध्यान केंद्रित करने के लिए चाय के तौर पर पीना आरंभ कर दिया।
कहते हैं इसकी बड़ी-बड़ी पत्तियों को उबालकर पीने से नींद गायब हो जाती थी। तभी से चाय की उत्पत्ति भी मानी जाती है, इस प्रकार बोधिधर्म को चाय का आविष्कार करने का भी श्रेय दिया जाता है।
नौ सालों की कड़ी तपस्या ने बनाया सर्वश्रेष्ठ योगी
बोधिधर्म के बारे में कहा जाता है कि एक बार जब चीन के सम्राट ने बोधिधर्म से बौद्ध धर्म के धार्मिक ग्रंथों का चीनी अनुवाद करने को कहा। तब बोधिधर्म ने साफ इंकार कर दिया।
जिसके बाद बोधिधर्म को चीन के एक प्रसिद्ध मंदिर शाओलिन में प्रवेश की अनुमति देने से मना कर दिया गया। कहते हैं तब बोधिधर्म ने मंदिर के बाहर प्रांगण में करीब 9 साल तक योग साधना की।
इतना ही नहीं, कहा जाता है कि उनकी शक्ति साधना के चलते मंदिर में मौजूद एक गुफा की दीवारों में छेद हो गया। तब जाकर वहां के लोगों ने उनकी शक्ति का आश्चर्य माना और उनसे शिक्षा दीक्षा लेना आरंभ कर दिया। इसी मंदिर में बोधिधर्म की विशेष प्रतिमा स्थापित है, जिसके दर्शन के लिए दूर दूर से लोग आते हैं।
इनका शिष्य बनने के लिए कन्फ्यूशियसी धर्म के अनुयायी ने काट ली थी अपनी बाहें
बोधिधर्म की लोकप्रियता का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि एक बार जब कन्फ्यूशियसी धर्म के अनुयायी शैन-क्कंग बोधिधर्म की शरण में आए। तो उन्हें बोधिधर्म से मिलने नहीं दिया गया।
जिस पर वह करीब एक हफ्ते तक ठिठुरती ठंड में बाहर खड़े होकर ही बोधिधर्म का इंतजार करते रहे। उन्होंने बोधिधर्म तक ये संदेश पहुंचाया कि यदि वह उनसे नहीं मिले तो वे अपने शरीर का बलिदान कर देंगे।
हालंकि बोधिधर्म के दया दृष्टि ना देने पर शैन-क्कंग ने अपनी बांह पहले ही काट ली थी। लेकिन एक बार बोधिधर्म ने उन्हें अपने पास बुला ही लिया और कहा कि तुम मुझसे क्या चाहते हो? जिस पर शैन-क्कंग ने कहा कि मुझे मन की शांति चाहिए। जिस पर बोधिधर्म शैन-क्कंग से कहते हैं की मैंने तुम्हें मन की शांति प्रदान की है…अनुभव करो।
कहते हैं तभी से शैन-क्कंग बोधिधर्म के मुरीद हो गए और उन्हें बोधिधर्म के प्रथम शिष्य के तौर पर जाना जाने लगा। जिनका नाम बदलकर हुई के कर दिया गया। जिन्होंने बोधिधर्म के बाद चीन में ध्यान क्रिया को आगे बढ़ाया।
अंतत, बौद्ध धर्म के सच्चे प्रवर्तक या प्रचारक के तौर पर विख्यात बोधिधर्म ने 540 ईसा पूर्व चीन के शाओलिन मंदिर में प्राण त्याग दिए थे। कुछ लोग बोधिधर्म की मृत्यु का कारण जहर का सेवन मानते हैं। क्योंकि बोधिधर्म को जीवनपर्यंत काफी आलोचनाओं और उपेक्षाओं का सामना करना पड़ा था, साथ ही इन्होंने अपने बाद किसी को भी अपना उत्तराधिकारी घोषित नहीं किया था, कहते हैं इसी कारण इन्हें किसी ने जहर दे दिया था।
जोकि इनके अंत समय में इनकी मृत्यु का कारण बना। जबकि कई लोगों का मानना है कि जिस गांव के लोगों को बोधिधर्म ने महामारी से छुटकारा दिलाया था, उस गांव के लोगों को ज्योतिष ने बताया था कि यदि किसी महापुरुष का शरीर गांव में दफन हो, तो गांव हमेशा के लिए संकट मुक्त हो जाएगा।
कहते हैं गांव वालों की खुशी के लिए बोधिधर्म ने बड़े चाव से भोजन में मिला जहर ग्रहण कर लिया था। जिनके बलिदान और शौर्य की कहानियां आज भी चीन में सुनाई जाती हैं।
इस प्रकार, बोधिधर्म को चीन में बौद्ध धर्म के साथ-साथ कुंग फू मार्शल आर्ट्स की स्थापना का भी श्रेय दिया जाता है। इसके अलावा बोधिधर्म को आयुर्वेद, सम्मोहन, पंच तत्वों का भी ज्ञान था, जिसका प्रदर्शन उन्होंने समय-समय पर किया था। वर्तमान में बोधिधर्म चीन में ता मो, थाईलैंड में ताकमो, कोरिया में दालमा और जापान में दारुमा नाम से विख्यात हैं।
हालांकि भारतीय लोगों ने बोधिधर्म के ज्ञान और विचारों पर अधिक अमल नहीं किया या कहें कि भारतीय जनता को अपनी ही भूमि पर जन्मे बोधिधर्म की शक्ति का अनुभव ना हो सका, जिसके चलते आज बोधिधर्म चीन में भगवान के अवतार और बौद्ध धर्म के प्रथम प्रचारक के तौर पर लोकप्रिय हैं।
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