प्रकृति पर कविता – Hindi Poems on Nature

Hindi poem on Nature

प्रकृति ईश्वर द्वारा प्रदत्त समस्त उपहारों में सबसे अनमोल तोहफा है। जिसके बिना मानव जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। प्रकृति के कारण ही हमें जीने के लिए वायु, भोजन और जल की प्राप्ति होती हैं, लेकिन वर्तमान समय में मानव प्रगति और विकास के नाम पर प्रकृति का अत्यधिक दोहन कर रहा है।

जिससे धरती पर प्राकृतिक असंतुलन बढ़ रहा है। ऐसे में आज हम आपके लिए प्रकृति पर हिंदी में कविता (Hindi poems on nature) लेकर आए हैं। जिनको पढ़कर आप अवश्य ही प्रकृति का रख-रखाव करने के प्रति जागरूक होंगे। इसलिए आज हम हिंदी के महान कवियों की अनेक प्रकृति से जुड़ी कविताएं लेकर आए हैं।

माखनलाल चतुर्वेदी – “बसंत मनमाना”

माखनलाल चतुर्वेदी का जन्म 4 अप्रैल 1889 को मध्य प्रदेश के होशंगाबाद में हुआ था। वह एक उत्तम कोटि के लेखक, कवि और पत्रकार थे। इन्हें हिंदी के साथ संस्कृत, बंगला, गुजराती और अंग्रेजी भाषा का भी अच्छा ज्ञान था।

माखनलाल चतुर्वेदी की कविताओं में मुख्य रूप से देशप्रेम और प्रकृति प्रेम की झलक देखने को मिलती है। इनकी मृत्यु 30 जनवरी 1968 में हुई थीं। इन्हें भारत सरकार से पदम भूषण भी मिला था। वर्तमान में इनके नाम पर भोपाल में माखन लाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय संचालित है। इनकी प्रकृति पर लिखी कविता इस प्रकार है-

बसंत मनमाना

चादर सी ओढ़ कर ये छायाएं
तुम कहा चले यात्री, पथ तो है बाएं।

धूल पड़ गई है पत्तों पर दलों लटकी किरणें
छोटे छोटे पौधों को चर रहे बाग में हिरणें,
दोनों हाथ बुढ़ापे के थर थर कांपे सब ओर
किंतु आंसुओं का होता है कितना पागल जोर
बढ़ आते हैं, चढ़ आते हैं, गड़े हुए हों जैसे
उनसे बातें कर पाता हूं कि मैं कुछ जैसे तैसे।
पर्वत की घाटी के पीछे लुका छिपी का खेल
खेल रही है वायु शीश पर सारी दुनिया झेल।

छोटे छोटे खरगोशों से उठा उठा सिर बादल
किसको पल पल झांक रहे हैं आसमान के पागल?
ये कि पवन पर, पवन कि इन पर, फेंक नजर की डोरी
खींच रहे है किसका मन ये दोनों चोरी चोरी?
फैल गया है पर्वत शिखरों तक बसंत मनमाना,
पत्ती, कली, फूल, डालों में दिख रहा मस्ताना।

महादेवी वर्मा – “मैं नीर भरी दुख की बदली”

महादेवी वर्मा हिंदी के छायावाद युग के चार स्तंभों में से एक थी। जिन्हें हिंदी की सर्वश्रेष्ठ कवियत्री का दर्जा प्राप्त था। इनका जन्म 26 मार्च 1907 को फर्रुखाबाद में हुआ था। महादेवी वर्मा को आधुनिक काल की मीरा भी कहा जाता है। इन्हें हिंदी के क्षेत्र में अतुलनीय योगदान देने के चलते ज्ञानपीठ पुरस्कार, पदम भूषण, पदम विभूषण आदि से सम्मानित किया गया था।

इनके घर वाले इन्हें देवी का दर्जा दिया करते थे, इसलिए इनका नाम महादेवी वर्मा पड़ा। महादेवी वर्मा ने हिंदी भाषा में अनेक रेखाचित्रों, निबंध, संस्मरण, कहानियां और कविताएं लिखी है। इनकी मृत्यु 11 सितंबर 1987 को प्रयागराज (इलाहाबाद) में हुई थी। इनकी प्रकृति से जुड़ी कविता इस प्रकार है-

मैं नीर भरी दुख की बदली

मैं नीर भरी दुख की बदली!
स्पंदन में चिर निस्पंद बसा
क्रंदन में आहत विश्व हंसा
नयनों में दीपक से जलते,
पलकों में निर्झारणीं मचली!

मेरा पग पग संगीत भरा
श्वासों से स्वप्न पराग झरा
नभ के नव रंग बुनते दुकूल
छाया में मलय बयार पली।

मैं क्षितिज भृकुटी पर घिर धूमिल
चिंता का भार बनी अविरल
रज कण पर जल कण हो बरसी,
नव जीवन अंकुर बन निकली!

पथ को न मलिन करता आना
पथ चिह्न न दे जाता जाना;
सुधि मेरे आगन की जग में
सुख की सिहरन हो अन्त खिली!

विस्तृत नभ का कोई कोना
मेरा न कभी अपना होना,
परिचय इतना, इतिहास यही
उमड़ी कल थी, मिट आज चली!

सोहनलाल द्विवेदी – “प्रकृति संदेश”

सोहनलाल द्विवेदी को राष्ट्र कवि की उपाधि से नवाजा गया है। इनका जन्म 22 फरवरी 1906 को उत्तर प्रदेश के फतेहपुर जिले में हुआ था। यह गांधीवाद के घोर समर्थक थे। इनकी रचनाओं के लिए भारत सरकार ने इन्हें पदम भूषण भी प्रदान किया था।

सोहनलाल द्विवेदी की रचनाएं अधिकतर देश प्रेम, गांधीवाद, किसान और प्रकृति प्रेम देखने को मिलता है। इनकी मृत्यु 1 मार्च 1988 को हो गई थी। द्विवेदी जी की प्रकृति से जुड़ी कविता कुछ इस प्रकार है-

प्रकृति संदेश

पर्वत कहता शीश उठाकर,
तुम भी ऊंचे बन जाओ।
सागर कहता है लहराकर
मन में गहराई लाओ।

समझ रहे हो क्या कहती हैं
उठ उठ गिर गिर तरल तरंग
भर लो भर लो अपने दिल में
मीठी मीठी मृदुल उमंग!

पृथ्वी कहती धैर्य न छोड़ो
कितना ही हो सिर पर भार,
नभ कहता है फैलो इतना
ढक लो तुम सारा संसार।

सुमित्रानंदन पंत – “वन वन, उपवन”

सुमित्रानंदन पंत का जन्म 20 मई 1900 को बागेश्वर जिले के कौसानी में हुआ था। यह हिंदी जगत के ऐसे कवि थे, जिनके काव्य में सदा वर्षा, झरना, पुष्प, लता, पेड़, पवन आदि का जिक्र मिलता था। अर्थात् प्राकृतिक सौंदर्य इनके काव्य की विशेषता थी।

इन्हें भारत सरकार द्वारा ज्ञानपीठ पुरस्कार, पदम भूषण और साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था। इनकी मृत्यु 28 दिसंबर 1977 को हुई थी। इनकी उपरोक्त प्रकृति से जुड़ी कविता निम्न प्रकार है-

वन वन उपवन

वन वन उपवन
छाया उन्मन उन्मन गुंजन,
नव वय के अलियों का गुंजन!

रुपहले, सुनहले आम्र बौर,
नीले, पीले औ ताम्र भौंर,
रे गंध अंध हो ठौर ठौर
उड़ पांति पांति में चिर उन्मन
करते मधु के वन में गुंजन!

वन के विटपों की डाल डाल
कोमल कलियों से लाल लाल,
फैली नव मधु की रूप ज्वाल,
जल जल प्राणों के अलि उन्मन
करते स्पंदन, करते गुंजन!

अब फैला फूलों में विकास,
मुकुलों के उर में मदिर वास,
अस्थिर सौरभ से मलय श्वास,
जीवन मधु संचय को उन्मन
करते प्राणों के अलि गुंजन!

मैथिलीशरण गुप्त- “किसान”

मैथिलीशरण गुप्त को खड़ी बोली हिंदी का प्रथम कवि माना जाता है। इनका जन्म 3 अगस्त 1886 को उत्तर प्रदेश के चिरगांव में हुआ था। इनके जन्मदिवस को कवि दिवस के रूप में मनाया जाता है। गुप्त जी को महात्मा गांधी ने राष्ट्र कवि कहकर संबोधित किया था।

इन्हें हिंदुस्तान अकादमी पुरस्कार, मंगलाप्रसाद पुरस्कार, साहित्यवाचस्पति और पदम भूषण से सम्मानित किया जा चुका है। यह ना केवल एक महान कवि थे, अपितु एक राजनेता और प्रसिद्ध नाटक कार भी थे। गुप्त जी की कविताओं में अधिकांश रूप से स्त्री और प्रकृति प्रेम देखने को मिलता है। इनकी मृत्यु 12 दिसंबर 1964 को हो गई थी। प्रकृति प्रेम से जुड़ी इनकी कविता निम्न प्रकार से है-

किसान

हेमंत में बहुदा घनों से पूर्ण रहता व्योम है
पावस निशाओं में तथा हंसता शरद का सोम है

हो जाए अच्छी भी फसल, पर लाभ कृषकों को कहां
खाते, खवाई, बीज ऋण से है रंगे रक्खे जहां

आता महाजन के यहां वह अन्न सारा अंत में
अधपेट खाकर फिर उन्हें है कांपना हेमंत में

बरसा रहा है रवि अनल, भूतल तवा सा जल रहा
है चल रहा सन सन पवन, तन से पसीना बह रहा

देखो कृषक शोषित, सुखाकर हल तथापि चला रहे
किस लोभ से इस आंच में, वे निज शरीर जला रहे

घनघोर वर्षा हो रही, है गगन गर्जन कर रहा
घर से निकलने को गरज कर, वज्र वर्जन कर रहा

तो भी कृषक मैदान में करते निरंतर काम हैं
किस लोभ से वे आज भी, लेते नहीं विश्राम हैं

बाहर निकलना मौत है, आंधी अंधेरी रात है
है शीत कैसा पड़ रहा, औ थरथराता गात है

तो भी कृषक ईंधन जलाकर, खेत पर हैं जागते
यह लाभ कैसा है, न जिसका मोह अब भी त्यागते

संप्रति कहां क्या हो रहा है, कुछ न उसको ज्ञान है
है वायु कैसी चल रही, इसका न कुछ भी ध्यान है

मानो भुवन से भिन्न उनका, दूसरा ही लोक है
शशि सूर्य हैं फिर भी कहीं, उनमें नहीं आलोक हैं।

रामधारी सिंह दिनकर – “वसंत के नाम पर”

रामधारी सिंह दिनकर को वीर रस का प्रमुख कवि माना गया है। इनका जन्म 23 सितंबर 1908 को बेगूसराय, बिहार में हुआ था।  इन्होंने सदैव देश प्रेम और क्रांति से जुड़ी रचनाएं लिखी। इनकी रचनाओं के लिए सरकार द्वारा इन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार, पदम भूषण और ज्ञान पीठ पुरस्कार मिला था।

यह एक कवि होने के साथ साथ लेखक और उच्च कोटि के निबंधकार भी थे। इनकी प्रकृति से जुड़ी कविता निम्न है-

वसंत के नाम पर

प्रात जगाता शिशु वसंत को नव गुलाब दे दे ताली,
तितली बनी देव की कविता वन वन उड़ती मतवाली।

सुंदरता को जगी देखकर जी करता मैं भी कुछ गाऊं,
मैं भी आज प्रकृति पूजन में निज कविता के दीप जलाऊं।

ठोकर मार भाग्य को फोड़े, जड़ जीवन तजकर उड़ जाऊं,
उतरी कभी न भू पर जो छवि, जग को उसका रूप दिखाऊं।

स्वप्न बीच जो कुछ सुंदर हो, उसे सत्य में व्याप्त करूं,
और सत्य तनु के कुत्सित मल का अस्तित्व समाप्त करूं।

हां वसंत की सरस घड़ी है, जी करता, मैं भी कुछ गाऊं,
कवि हूं, आज प्रकृति पूजन में, निज कविता के दीप जलाऊं।

क्या गाऊं? सतलज रोटी है हाय! खिली बोलियां किनारे।
भूल गए ऋतुपति, बहते हैं, यहां रुधिर के दिव्य पनारे।

बहनें चीख रहीं रावी तट, बिलख रहे बच्चे बेचारे,
फूल फूल से पूछ रहे हैं, कब लौटेंगे पिता हमारे?

उफ, वसंत या मदन बाण है? वन वन रूप ज्वार आया है।
सिहर रही वसुधा रह रहकर, यौवन में उभार आया है।

कसक रही सुंदरी आज मधु ऋतु में मेरे कंत कहां?
दूर द्वीप में प्रतिध्वनि उठती, प्यारी और वसंत कहां?

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला – “ध्वनि”

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी को प्रकृति प्रेमी कहा गया है। इनका जन्म 21 फरवरी 1899 को मेदिनीपुर, पश्चिम बंगाल में हुआ था। यह छायावाद युग के महान कवियों में से एक थे। इनका आरंभिक जीवन काफी कष्टों भरा रहा था। लेकिन इन्होंने काफी छोटे से ही कविता लिखनी प्रारंभ कर दी थी।

इसलिए यह हिंदी काव्य के महान कवियों में से एक थे। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की मृत्यु 15 अक्टूबर 1961 को प्रयागराज (इलाहाबाद) में हुई थी। इनकी प्रकृति पर कविता इस प्रकार से है-

ध्वनि

अभी न होगा अंत मेरा

अभी अभी ही तो आया है
मेरे वन में मृदुल वसंत
अभी न होगा मेरा अंत

हरे हरे ये पात
डालियां, कलियां कोमल गात!

मैं ही अपना स्वप्न मृदुल कर
फेरूंगा निद्रित कलियों पर
जगा एक प्रत्युष मनोहर

पुष्प पुष्प से तंद्रालस लालसा खींच लूंगा मैं,
अपने नवजीवन का अमृत सहर्ष सींच दूंगा मैं,

द्वार दिखा दूंगा फिर उनको
है मेरे वे जहां अनंत
अभी न होगा मेरा अंत।

मेरे जीवन का यह है जब प्रथम चरण,
इसमें कहां मृत्यु?

है जीवन ही जीवन
अभी पड़ा है आगे सारा यौवन

स्वर्ण किरण कल्लोलों पर बहता रे, बालक मन,
मेरे ही अविकसित राग से

विकसित होगा बंधु, दिगंत;
अभी न होगा मेरा अंत।

जयशंकर प्रसाद – “झरना”

जयशंकर प्रसाद हिंदी जगत के महान कवि, लेखक और उपन्यासकार थे। इनका जन्म 30 जनवरी 1890 को उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले में हुआ था। खड़ीबोली को काव्य की भाषा बनाने का श्रेय जयशंकर प्रसाद को दिया जाता है। इनकी मृत्यु 15 नवंबर 1937 को हुई थी।

भारत सरकार ने इन्हें मंगलाप्रसाद पारितोषिक प्रदान किया था। इनकी प्रकृति पर कविता निम्न है-

मधुर है स्त्रोत मधुर हैं लहरी
न हैं उत्पात, छटा हैं छहरी
मनोहर झरना।

कठिन गिरि कहां विदारित करना
बात कुछ छिपी हुई हैं गहरी
मधुर है स्त्रोत मधुर हैं लहरी

कल्पनातीत काल की घटना
हृदय को लगी अचानक रटना
देखकर झरना।

प्रथम वर्षा से इसका भरना
स्मरण हो रहा शैल का कटना
कल्पनातीत काल की घटना

कर गई प्लावित तन मन सारा
एक दिन तब अपांग की धारा
हृदय से झरना

बह चला, जैसे दृगजल ढरना
प्रणय वन्या ने किया पसारा
कर गई प्लावित तन मन सारा

प्रेम की पवित्र परछाई में
लालसा हरित विटप झाईं में
बह चला झरना।

तापमय जीवन शीतल करना
सत्य यह तेरी सुघराई में
प्रेम की पवित्र परछाई में।।

भारतेंदु हरिश्चंद्र – “हरी हुई सब भूमि”

भारतेंदु हरिश्चंद्र जी आधुनिक हिंदी के पितामह कहे जाते हैं। इन्हें आधुनिक हिंदी की शुरुआत करने का श्रेय भी दिया जाता है। भारतेंदु हरिश्चंद्र जी का जन्म 9 सितंबर 1950 को वाराणसी, उत्तर प्रदेश में हुआ था। यह एक लेखक, कवि और श्रेष्ठ वक्ता थे।

इन्होंने मातृभाषा हिंदी को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा दिलाने के लिए कड़ी मेहनत की। भारतेंदु हरिश्चंद्र जी को भारतेंदु की उपाधि दी गई थी। इनकी मृत्यु 6 जनवरी 1885 को हुई थी। इनकी प्रकृति प्रेम पर आधारित कविता इस प्रकार है-

हरी हुई सब भूमि

बरषा सिर पर आ गई हरी हुई सब भूमि
बागों में झूले पड़े, रहे भ्रमण गण झुमि

करके याद कुटुंब की फिरे विदेशी लोग
बिछड़े प्रीतमवालियों के सिर पर छाया सो

खोल खोल छाता चले लोग सड़क के बीच
कीचड़ में जूते फंसे जैसे अघ में नीच।

नागार्जुन – “बादल को घिरते देखा है”

नागार्जुन को प्रगतिशील समाज का श्रेष्ठ कवि माना गया है। इनका जन्म 30 जून 1911 को मधुबनी जिले के सतलखा में हुआ था।  नागार्जुन की साहित्यिक रचनाओं के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार, भारत भारती सम्मान, मैथिलीशरण गुप्त पुरस्कार, राजेंद्र शिखर सम्मान और सर्वोच्च फैलोशिप प्राप्त हुई थी।

इन्हें हिंदी समेत बंगला भाषा का भी अच्छा ज्ञान था। नागार्जुन की मृत्यु 5 नबंबर 1998 को हुई थी। इनकी प्रकृति से जुड़ी कविता इस प्रकार है-

बादल को घिरते देखा है

अमल धवल गिरि के शिखरों पर, बादल को घिरते देखा है।
छोटे छोटे मोती जैसे
उसके शीतल तुहिन कणों को,
मानसरोवर के उन स्वर्णिम
कमलों पर गिरते देखा है,
बादल को घिरते देखा है।

तुंग हिमालय के कंधों पर
छोटी बड़ी कई झीलें हैं,
उनके श्यामल नील सलिल में
समतल देशों से आ आकर
पावस की ऊमस से आकुल
तिक्त मधुर विष तंतु खोजते
हंसों को तिरते देखा है
बादल को घिरते देखा है।

ऋतु वसंत का सुप्रभात था
मंद मंद था अनिल बह रहा
बालारूण की मृदु

इस प्रकार, हम उम्मीद करते हैं कि आपको हमारी यह प्रकृति पर विभिन्न कवियों की कविताओं [Hindi poems on nature] संबंधी लेख पसंद आया होगा।

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अंशिका जौहरी

मेरा नाम अंशिका जौहरी है और मैंने पत्रकारिता में स्नातकोत्तर किया है। मुझे सामाजिक चेतना से जुड़े मुद्दों पर बेबाकी से लिखना और बोलना पसंद है।

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