हिंदी साहित्य के सूर्य कहे जाने वाले सूरदास जी ना केवल ब्रजभाषा के एक महान् कवि थे। अपितु वह भगवान श्री कृष्ण के अद्भुत भक्त भी थे। जिन्होंने अपनी रचनाओं में सदैव ही भगवान श्री कृष्ण की उपासना की थी। सूरदास जी के विषय में कहा जाता है कि यह जन्म (1478-1580) से ही नेत्रहीन थे।
परन्तु सूरदास जी ने भगवान श्री कृष्ण के सम्पूर्ण जीवनकाल का इतना मनोहारी वर्णन किया है कि मानो ऐसा लगता है कि उन्होंने उन सभी दृश्यों को देखा हो। ऐसे में आज हम आपके लिए सूरदास जी के दोहे हिंदी में अर्थ सहित लेकर आए हैं। जोकि परीक्षा की दृष्टि से आपके लिए महत्वपूर्ण हो सकते हैं।
उधौ मन न भये दस बीस।
एक हुतौ सौ गयो स्याम संग, को अराधे ईस।।
इन्द्री सिथिल भई केसव बिनु, ज्यो देहि बिनु सीस।
आसा लागि रहित तन स्वाहा, जीवहि कोटि बरीस।।
तुम तौ सखा स्याम सुंदर के, सकल जोग के ईस।
सूर हमारे नंद-नंदन बिनु और नही जगदीस।।
भावार्थ – सूरदास जी के अनुसार, जब भगवान श्री कृष्ण के मित्र उद्धव जी गोपियों के पास जाकर उनसे श्री कृष्ण को भूल जाने को कहते हैं। तब गोपियां उद्धव जी से कहती हैं कि हे उद्धव हमारे पास दस बीस मन तो हैं नही। हमारा तो एक ही मन है जो हमने श्री कृष्ण को दे दिया है। अब हम किस मन से परमब्रह्या की आराधना करेंगे।
श्री कृष्ण के बिना तो हमारी इन्द्रियां शिथिल हो गई हैं। अब उनके दर्शन के बिना जीने की अभिलाषा ही नहीं रह गई है। अगर हमें भगवान श्री कृष्ण के दर्शन हो जाते, तो हम अवश्य ही करोड़ो सालों तक जीने की आशा रख सकते थे। हे उद्धव तुम तो श्री कृष्ण के बाल सखा हो। तुम चाहे तो उनके बिना अपनी जीवन नैया को पार लगा सकते हो। लेकिन हमारा श्री कृष्ण के अलावा दुनिया में दूसरा कोई नहीं है।
निरगुन कौन देस को वासी।
मधुकर किह समुझाई सौह दै, बूझति सांची न हांसी।।
को है जनक, कौन है जननि, कौन नारि कौन दासी।
कैसे बरन भेष है कैसो, किंह रस में अभिलासी।।
पावैगो पुनि कियौ आपनौ, जा रे करेगी गांसी।
सुनत मौन हवै रह्यौ बावरों, सुर सबै मति नासी।।
भावार्थ – भगवान श्री कृष्ण के कहने पर जब उद्धव जी गोपियों के पास परमब्रह्या का संदेश लेकर जाते हैं। तब वह गोपियां उद्धव जी से पूछती हैं कि हे उद्धव तुम्हारा यह निराकार ब्रह्या किस देश का वासी है। उसका रंग, रूप, जाति और गुण आदि क्या है। उसके माता पिता कहां रहते हैं।
और वह देखने में कैसा लगता है।
गोपियों के इत्यादि प्रश्नों को सुनकर उद्धव जी बिल्कुल शांत हो जाते हैं। हालांकि गोपियां उद्धव जी को अपनी सौगंध देकर इन समस्त प्रश्नों का जवाब पूछती है, लेकिन उद्धव जी उनमें से एक का भी जवाब दिए बिना ही वहां से चले जाते हैं।
बुझत स्याम कौन तू गोरी। कहां रहति काकी है बेटी देखी नही कहूं ब्रज खोरी।।
काहे को हम ब्रजतन आवति खेलति रहहि आपनी पौरी।
सुनत रहति स्त्रवननि नंद ढोटा करत फिरत माखन दधि चोरी।।
तुम्हरो कहा चोरी हम लैहैं खेलन चलौ संग मिलि जोरी।
सूरदास प्रभु रसिक सिरोमनि बातनि भूरइ राधिका भोरी।।
भावार्थ – सूरदास जी के उपरोक्त दोहे में भगवान श्री कृष्ण और राधा के मध्य मधुर वार्तालाप दर्शाया गया है। जहां भगवान श्री कृष्ण राधा जी से पूछते हैं कि हमने तुम्हें कभी ब्रज की गलियों में नही देखा है। तुम अपने ही घर के आंगन में खेलती रहती। यहां क्यों चली आई।
जिस पर राधा जी भगवान श्री कृष्ण से कहती हैं कि यहां ब्रज में नंद बाबा का लड़का माखन चोरी करता है। मैं उसी को ढूंढने आई हूं। जिस पर भगवान श्री कृष्ण राधा से कहते हैं कि हम तुम्हारा क्या चुरा लेंगे। चलो हम दोनों मिलकर खेलते हैं। तात्पर्य यह है कि भगवान श्री कृष्ण राधा को अपनी मीठी बातों में फंसा लेते हैं।
मैया मोहि कबहुँ बढ़ेगी चोटी।
किती बेर मोहि दूध पियत भइ यह अजहू है छोटी।।
तू तो कहति बल की बेनी ज्यों ह्रै है लांबी मोटी।
काढ़त गुहत न्हावावत जैहै नागिन सी भुई लोटी।।
काचो दूध पियावति पचि-पचि देति न माखन रोटी।।
सूरदास त्रिभुवन मनमोहन हरि हलधर की जोटी।।
भावार्थ – जब जसोदा माता के बार बार कहने पर भी भगवान श्री कृष्ण दूध नहीं पीते थे। तब जसोदा मैया ने श्री कृष्ण को यह लालच दिया कि यदि वह प्रतिदिन दूध पियेगें। तो उनकी भी दाऊ बलराम की तरह चोटी लंबी हो जाएगी। जिसके बाद भगवान श्री कृष्ण ने प्रतिदिन दूध पीना शुरू कर दिया। कुछ दिनों बाद उन्होंने माता जसोदा से पूछा कि मैया तुम्हारे कहेनुसार मैंने प्रतिदिन दूध पिया।
तो अब आप बताओ कि मेरी चोटी भी कब तक दाऊ बलराम की तरह मोटी और अधिक लंबी हो जाएगी। क्योंकि इसलिए तू मुझे हमेशा कच्चा दूध पिलाया करता था। हमेशा मेरे बालों को कंघी किया करती थी। और नित्य मेरी चोटी गूंधा करती थी। ताकि मेरी चोटी भी दाऊ की तरह लंबी हो जाए। इतना ही नहीं तू मुझे इसलिए माखन और रोटी भी नहीं खाने दिया करती थी। तो अब यह बता मैया कि मेरी चोटी कब लंबी होगी। सूरदास जी कहते हैं कि सम्पूर्ण संसार में भगवान श्री कृष्ण और दाऊ बलराम की जोड़ी सबसे अलग है।
मुखहि बजावत बेनु धनि यह वृन्दावन की रेनु।
नंद किसोर चरावत गैयां मुखहि बजावत बेनु।।
मनमोहन को ध्यानधरै जिय अति सुख पावत चैन।
चलत कहां मन बस पुरातन जहाँ कछु लें ना देन।।
यहां रहहु जहँ जूठन पावहु ब्रज बासिनी के ऐनु।
सूरदास ह्या की सरवरि नहि कल्पबृच्छ सुरधेनु।।
भावार्थ- सूरदास जी कहते हैं कि वह ब्रजवासी बहुत धन्य है जहां भगवान श्री कृष्ण अपनी गौ को चराते हैं और बासुंरी की धुन सुनाते हैं। ब्रज की भूमि पर श्याम सुंदर को याद करके मन को शांति मिलती है। मैं अपने मन को भी यही समझाता हूं कि तू इधर उधर मत भटक। इस ब्रज में रहकर ही तू व्यावहारिकता से परे जीवन व्यतीत कर सकता है।
यहां न तो किसी से कुछ लेना है और न ही किसी को कुछ देना। यहां सब लोग भगवान श्री कृष्ण के प्रति ध्यान मग्न हैं। और मुझे भी ब्रजवासियों के झूठे बर्तनों में से कुछ पाकर मानो श्री कृष्ण के असीम प्रेम की प्राप्ति होती है। ब्रज की भूमि से सूरदास के मुताबिक कामधेनु की समानता भी नहीं की जा सकती है।
मैया मोहि मैं नही माखन खायौ।
भोर भयो गैयन के पाछे, मधुबन मोहि पठायो।
चार पहर बंसीबट को छोटो, छीको किहि बिधि पायो।
ग्वाल बाल सब बैर पड़े है, बरबस मुख लपटायो।।
तू जननी मन की अति भोरी इनके कहें पतिआयो।
जिय तेरे कछु भेद उपजि है, जानि परायो जायो।।
यह लै अपनी लकुटी कमरिया, बहुतहिं नाच नचायों।
सूरदास तब बिहँसि जसोदा लै उऱ कंठ लगायो।।
भावार्थ- उपरोक्त दोहे में भगवान श्री कृष्ण माता जसोदा से कहते हैं कि मैया तेरी कसम, मैंने माखन नही खाया है। प्रात:काल मैं गायों को चराने चला जाता हूं। और जब शाम को वापस आता हूं तो मेरे पैरों में दर्द होने लगता है। और मैं छोटा बालक छीके तक कैसे पहुंच सकता हूं? वो तो मेरे दोस्त मेरे मुख पर माखन लगा देते हैं।
लेकिन तुम्हें अगर फिर भी लगता है कि मेरी गलती है तो तुम मेरी मार लगा सकती हो। ऐसा कहकर भगवान श्री कृष्ण माता जसोदा को अपनी ओर कर लेते हैं। और उन्हें अपनी बातों के जाल में फंसा लेते हैं। माता जसोदा भी नन्हें कृष्णा को अपने गले से लगा लेती हैं। सूरदास जी माता जसोदा और भगवान श्री कृष्ण के प्रेम को देखकर भाव विभोर हो जाते हैं।
मैया मोहि दाऊ बहुत खिजायो।
मोसो कहत मोल को लीन्हो, तू जसमति कब जायौ।
कहा करौ इही के मारे खेलन हौ नही जात।
पुनि-पुनि कहत कौन है माता को है तेरौ तात।
गोरे नंद जसोदा गोरी तू कत श्यामल गात।।
चुटकी दै दै ग्वाल नचावत हंसत सबै मुसकात।
तू मोहि को मारन सीखी दाउहि कबहु न खीजै।।
मोहन मुख रिस की ये बातै, जसुमति सुनि सुनि रीझै।।
सुनहु कान्ह बलभद्र चबाई, जनमत ही कौ धूत।
सूर स्याम मोहै गोधन की सौ, हौ माता थो पूत।।
भावार्थ – भगवान श्री कृष्ण अपने बड़े भाई दाऊ बलराम की शिकायत लेकर माता जसोदा के पास आते हैं। औऱ उनसे कहते हैं कि मैया दाऊ मुझे यह कहकर चिढ़ाते हैं कि तूने मुझे बाजार से खरीदा है। तूने मुझे जन्म नहीं दिया है। इसी कारण मेरा खेलने में भी मन नहीं लग रहा है। सूरदास जी कहते हैं कि भगवान श्री कृष्ण माता जसोदा से बार बार यही पूछते हैं कि मेरी माता कौन है और मुझे किसने जन्म दिया है।
वह यह भी कहते हैं कि नंद बाबा तो गोरे वर्ण के हैं और जबकि मैं सांवला हूं। मेरा तो सभी ग्वाल वाले भी मजाक उड़ाते हैं। तुम कभी भी दाऊ को नही डांटती हो। वह सदैव मुझे चिढ़ाते हैं। भगवान श्री कृष्ण के मुख से यह सब सुनकर माता जसोदा मन ही मन मुस्कुराती है और कहती है कि मेरे लाल। दाऊ से बचपन से ही चुगलखोर है। मैं तेरी कसम खाकर कहती हूं कि मैं ही तेरी माता हूं और मैंने ही तुझे जन्म दिया है।
जसोदा हरि पालनै झुलावै।
हसरावै दुलरावै मल्हावै जोई सोई कछु गावै।
मेरे लाल को आउ निंदरिया कहे न आनि सुवावै।
तू काहै नहि बेगहि आवै तोको कान्ह बुलावै।।
कबहुँ पलक हरि मुंदी लेत है कबहु अधऱ फरकावै।।
सोवत जानि मौन ह्रै कै रहि करि करि सैन बतावै।।
इही अंतर अकुलाई उठे हरि जसुमति मधुरैं गावै।
जो सुख सुर अमर मुनि दुर्लभ सो नंद भामिनी पावै।।
भावार्थ- उपरोक्त दोहे में माता जसोदा भगवान श्री कृष्ण को झूला झूलाते हुए गाना गा रही हैं कि हे नींद तू मेरे लाल के पास आ जा। उसे आकर सुला दें। तेरी वजह से कभी मेरा कान्हा अपनी आंखें खोल लेता है तो कभी बंद कर लेता है। फिर जब श्री कृष्ण सो जाते हैं तब माता जसोदा गोपियों से कहती हैं कि तुम सब लोग शांत रहो। वरना मेरा कान्हा उठ जाएगा।
माता जसोदा के इतना कहते ही श्री कृष्ण अपनी आंखें खोल लेते हैं। माता जसोदा पुनं उन्हें सुलाने के लिए गीत गाती हैं। जिसे देखकर सूरदास जी कहते हैं कि माता जसोदा से भगवान श्री कृष्ण को मातृत्व प्रेम की प्राप्ति हो रही है।
अबिगत गति कछु कहत न आवै।
ज्यो गूंगों मीठे फल की रास अंतर्गत ही भावै।।
परम स्वादु सबहीं जु निरंतर अमित तोष उपजावै।।
मन बानी को अगम अगोचर सो जाने जो पावै।।
रूप रेख मून जाति जुगति बिनु निरालंब मन चक्रत धावै।।
सब बिधि अगम बिचारहि, तांतो सुर सगुन लीला पद गावै।।
भावार्थ- सूरदास जी कहते हैं कि निर्गुण ब्रह्या की उपासना करना मनुष्य के लिए कठिन होता है। क्योंकि उसका ना तो कोई रूप है, ना रंग और जाति। जिस प्रकार से, कोई गूंगा व्यक्ति किसी मीठे फल का स्वाद तो चख सकता है। लेकिन उस मीठे फल के बारे में किसी से कुछ कह नही सकता है।
ठीक वैसे ही निर्गुण ब्रह्या की भक्ति करने के पश्चात् उसके बारे में किसी को वर्णित नहीं किया जा सकता है। ऐसे में सूरदास जी कहते हैं कि भगवान श्री कृष्ण की भक्ति करना ही मनुष्यों के लिए श्रेयस्कर है।
चरण कमल बंदो हरी राइ।
जाकी कृपा पंगु गिरी लांघें अंधे को सब कुछ दरसाई।।
बहिरो सुनै मूक पुनि बोले रंक चले सर छत्र धराई।
सूरदास स्वामी करुणामय बार-बार बंदौ तेहि पाई।।
भावार्थ – प्रस्तुत दोहे में भगवान श्री कृष्ण की महिमा के बारे में बताते हुए सूरदास जी कहते हैं कि जिनकी कृपा होने पर लंगड़ा व्यक्ति भी पहाड़ को आसानी से लांघ जाता है। अंधे व्यक्ति को सभी दर्शन हो जाते हैं। बहरा व्यक्ति भी सुनने लग जाता है। और गूंगा व्यक्ति भी बोलने लग जाता है। साथ ही गरीब व्यक्ति अमीर हो जाता है। ऐसे भगवान श्री कृष्ण के चरणों की मैं बार बार वंदना करता हूं।
हरष आनंद बढ़ावत हरि अपनैं आंगन कछु गावत।
तनक तनक चरनन सों नाच मन हीं मनहिं रिझावत।।
बांह उठाई कारी धौरी गैयनि टेरी बुलावत।
कबहुंक बाबा नंग पुकारत कबहुंक घर आवत।।
माखन तनक आपनैं कर लै तनक बदन में नावत।
कबहुँ चितै प्रतिबिंब खंभ मैं लोनी लिए खवावत।।
दूरि देखति जसुमति यह लीला हरष आनंद बढ़ावत।
सुर स्याम के बाल चरित नित नितही देखत भावत।।
भावार्थ – भगवान श्री कृष्ण की लीलाओं को देखकर माता जसोदा प्रसन्न हो रही हैं। क्योंकि भगवान श्री कृष्ण नित्य अपने छोटे छोटे पैरों को थिरका रहे हैं। वह नंद बाबा को बार बार बुला रहे हैं। और वह कभी माखन लेकर उसे अपने शरीर के अंगों पर लगाते हैं तो कभी अपने प्रतिबिंब को देखकर उसे माखन खिलाते हैं।
माता जसोदा भगवान श्री कृष्ण की बाल लीलाओं को देखकर मन ही मन मुस्कुरा रही हैं और उनके बालपन के क्रियाकलापों का आंनद ले रही हैं।
जो तुम सुनहु जसोदा गोरी। नंदनंदन मेरे मंदीर में आज करन गए चोरी।
हों भइ जाइ अचानक ठाढ़ी कह्यो भवन में कोरी।
रहे छपाइ सकुचि रंचक ह्रै भई सहज मति भोरी।।
मोहि भयो माखन पछितावो रीती देखि कमोरी।
जब गहि बांह कुलाहल किनी तब गहि चरन निहोरी।।
लागे लें नैन जल भरि भरि तब मैं कानि न तोरी।
सूरदास प्रभु देत दिनहिं दिन ऐसियै लरिक सलोरी।।
भावार्थ – एक ग्वालिन माता जसोदा के पास जाकर भगवान श्री कृष्ण के बारे में बताती है कि मैया आपका लाडला आज मेरे घर माखन खाते पकड़ा गया है। उसके भोलेपन को देखकर पहले तो मैं पिघल गई थी। उसके बाद जब मैंने माखन की मटकी खाली देखी तो मैंने उसे रंगे हाथों पकड़ लिया।
मेरे ऐसा करते ही आपका कन्हैया मेरे चरण छूने लग गया। फिर मुझे उसे देखकर दया आ गई। और मैंने उसे माफ कर दिया। सूरदास जी कहते हैं कि रोज ग्वालिनें माता जसोदा के पास आकर उन्हें भगवान श्री कृष्ण की बाल लीलाओं के बारे में बताती हैं। जिसे सुनकर माता जसोदा मन ही मन प्रसन्न होती हैं।
अरु हलधर सों भैया कहन लागे मोहन मैया मैया।
नंद महर सों बाबा अरु हलधर सों भैया।।
ऊंचा चढी चढी कहती जशोदा लै लै नाम कन्हैया।।
दुरी खेलन जनि जाहू लाला रे। मारैगी काहू की गैया।।
गोपी ग्वाल करत कौतुहल घऱ घर बजति बधैया।
सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस कों चरननि की बलि जैया।।
भावार्थ – सूरदास जी बताते हैं कि जैसे जैसे भगवान श्री कृष्ण बड़े हो रहे हैं। वैसे वैसे उनका नटखट पन भी बढ़ रहा है। वह अब अपनी माता को मैया, नंद बाबा को बाबा और बलराम को भैया पुकारते हैं। उधर, माता जसोदा कन्हिया को पुकारती है कि तू इधर आ जा। वरना गाय तुझे मार देंगी।
सूरदास जी कहते हैं कि भगवान श्री कृष्ण की बाल लीलाओं को देखकर गांव वाले भी काफी आश्चर्य चकित होते हैं। और वह सब लोग नंद बाबा और माता जसोदा को भगवान श्री कृष्ण के बालपन के लिए बधाईयां देते हैं।
मुख दधि लेप किए सोभित कर नवनीत लिए।
घुटुरुनि चलत रेनु तन मंडित मुख दधि लेप किए।।
चारु कपोल लोल लोचन गोरोचन तिलक दिए,
लट लटकनि मनु मत्त मधुप गन मादक मधुहिं पिए।
कठुला कंठ वज्र केहरि नख राजत रुचिर हिए,
धन्य सूर एकौ पल इहिं सुख का सत कल्प जिए।।
भावार्थ – प्रस्तुत दोहे में सूरदास जी ने भगवान श्री कृष्ण के बालपन का वर्णन किया है। वह कहते है कि भगवान श्री कृष्ण नंद बाबा और माता यशोदा के आंगन में माखन को अपने हाथों में लेकर घुटनों के बल चल रहे हैं। उनके सारे शरीर पर मिट्टी लगी हुई है। और उनके मुंह पर दही लगा हुआ है।
उनके चेहरे पर उनके बालों की लट ऐसी लग रही है। जैसे मानो भोरें रस पीकर मदहोश हो गए हैं। इतना ही नहीं, उनका सौंदर्य उनके गले में पड़े कंठ हार से अत्यधिक निखर गया है। सूरदास जी कहते हैं कि यदि किसी को बाल कृष्ण के इस रूप के दर्शन मात्र भी हो जाए। तो उसका जीवन सार्थक हो जाएगा।
गोपालहिं माखन खान दै।
सुनु री सखी को जिनि बोले बदन दही लपटान दै।।
गहि बहिया हौं लै कै जैहों नयननि तपनि बुझान दै।।
वा पे जाय चौगुनो लैहौं मोहिं जसुमति लौं जान दै।।
तुम जानति हरि कछु न जानत सुनत ध्यान सों कान दै।।
सूरदास प्रभु तुम्हरे मिलन कों राखौं तन मन प्रान दै।।
भावार्थ – एक सखी दूसरी सखी से कहती है। कि मैं कितने दिनों से ऐसा चाहती थी कि भगवान श्री कृष्ण मेरे घर आकर माखन खाए। आज मेरी यह इच्छा पूर्ण हो रही है। तू इसलिए बीच में बोलकर बाधा उत्पन्न ना कर।
बस मैं अब यह और चाहती हूं कि भगवान श्री कृष्ण को पकड़कर माता यशोदा के पास ले जाऊं। बस तू मुझे इस अनमोल दृश्य को देखने दे, मुझे अपनी बातों मैं ना लगा।
गुरू बिनु ऐसी कौन करै।
माला-तिलक मनोहर बाना, लै सिर छत्र धरै।।
भवसागर तै बूडत राखै, दीपक हाथ धरै।।
सूर स्याम गुरू ऐसौ समरथ, छिन मैं ले उधरे।।
भावार्थ – उपयुक्त दोहे में सूरदास जी ने गुरु की कृपा के बारे में बताया हैं। वह कहते हैं कि इस समस्त संसार में गुरु के अतिरिक्त ऐसा कौन है, जो हम पर कृपा कर सकता है। गुरु जिनके गले में हार और माथे पर तिलक विराजित है।
और अपने शीर्ष पर छत्र धारण करके उनका रूप बहुत मनमोहक लगने लगा है। वह गुरु ही होते हैं जो संसार रूपी भव सागर को पार करने के लिए अपने शिष्यों के भीतर ज्ञान की ज्योत जलाते हैं। इसी प्रकार भगवान श्री कृष्ण ने मुझे ज्ञान देकर मेरी संसार की नैया को पार लगा दिया है।
अब कै माधव मोहिं उधारि।
मगन हौं भाव अम्बुनिधि में कृपासिन्धु मुरारि।।
नीर अति गंभीर माया लोभ लहरि तरंग।।
लियें जात अगाध जल में गहे ग्राह अनंग।।
मीन इऩ्द्रिय अतिहि काटति मोट अघ सिर भार।।
पग न इत उत धरन पावत उरझि मोह सिबार।।
काम क्रोध समेत तृष्ना पवन अति झकझोर।।
नाहिं चितवत देत तियसुत नाम नौका ओर।
थक्यौ बीच बेहाल बिह्रल सुनहु करुनामूल।।
स्याम भुज गहि काढ़ि डारहु सूर ब्रज के कूल।।
भावार्थ – सूरदास जी कहते हैं कि यह सम्पूर्ण संसार माया रूपी जल से भरा पड़ा है। जिसमें मनुष्य की लालच रूपी लहरें उठती है। और इसमें इंद्रियां रूपी मछलियां तैरती है। साथ ही यहां वासना रूपी मगर रहता है।
ऐसे में समुन्द्र रूपी इस जल में काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार जैसे दानव विद्यमान है। जिससे हमें भगवान श्री कृष्ण की भक्ति ही बचा सकती है। जिनका नाम लेने से हम इस मायारूपी समुन्द्र को पार कर सकते हैं। क्योंकि मात्र भगवान ही हमें इस माया के फेंके हुए जाल से पार लगा सकते हैं।
कबहुं बोलत तात खीझत जात माखन खातय़
अरुन लोचन भौंह टेढ़ी बार बार जंभात।।
कबहुं रुनझुन चलत घुटुरुनि धुरि धूसर गात।।
कबहुं झुकि कै अलक खैंच नैन जल भरि जात।।
कबहुं तोतर बोल बोलत कबहुं बोलत तात।।
सुर हरी की निरखि सोभा निमिष तजत न मात।।
भावार्थ – भगवान श्री कृष्ण जब माखन खाते खाते नाराज हो जाते हैं। तब उनकी आंखों में आंसू आने लगते है। लेकिन जब वह नंद बाबा के आंगन में घुटनों चलते है। तब उनके पैरों में बंधी पेंजनियां से मनमोहक स्वर निकलता हैं और उनका पूरा शरीर मिट्टी से लतपथ हो जाता है।
वह अपनी तोतली आवाज में तात तात बोलते हैं। इतना ही नहीं, भगवान श्री कृष्ण स्वयं अपने बालों को खींच रहे हैं और आंखों में आसूं लेकर लगातार रोए जा रहे हैं। जिसे देख माता जशोदा खुद को रोक नहीं पा रही है और श्री कृष्ण की बाल लीलाओं का छुपकर आनंद ले रही हैं।
मैं नहीं माखन खायो मैया।
मैं नहीं माखन खायो।।
ख्याल परै ये सखा सबै मिली मेरैं मुख लपटायो।।
देखि तुही छींके पर भजन ऊंचे धरी लटकायो।।
हौं जु कहत नान्हें कर अपने मैं कैसे करि पायो।।
मुख दधि पोंछी बुद्धि एक किन्हीं दोना पीठी दुरायो।।
डारी सांटी मुसुकाइ जशोदा स्यामहिं कंठ लगायो।।
बाल बिनोद मोद मन मोह्यो भक्ति प्राप दिखायो।।
सूरदास जसुमति को यह सुख सिव बिरंचि नहिं पायो।।
भावार्थ – सूरदास जी कहते हैं कि जब माता जसोदा श्री कृष्ण को अपने ही घर में माखन चुराते देख लेती हैं। तब उन्हें ग्वालिनों की बात पर विश्वास होने लगता है कि हां उनके घरों का माखन कृष्णा ही चुराकर खाता होगा। जिसपर भी भगवान श्री कृष्ण को आवाज देती हैं और उनसे पूछती है कि क्यों कृष्णा, तूने माखन खाया है।
माता जसोदा के प्रश्न पर श्री कृष्ण उन्हें अपनी बातों में फंसा लेते हैं और कहते हैं कि मैया वो ग्वालवाले मेरे मुख पर माखन लगा देते हैं। यह छीका इतने ऊंचे पर रखा है कि तुम्हारा यह नन्हा सा बालक वहां तक कैसे पहुंच सकता है। माता जसोदा जब भगवान श्री कृष्ण की यह बातें सुनती है तो वह खुशी से उन्हें गले लगा लेती हैं। और सूरदास जी इसे तीनों लोकों में मौजूद सुखों से अधिक श्रेष्ठ बताते हैं।
मोहिं प्रभु तुमसों होड़ परी।
ना जानौं करिहौ जु कहा तुम नागर नवल हरी।।
पतित समूहनि उद्धरिबै कों तुम अब जक पकरी।
मैं तो राजिवनैननि दुरि गयो पाप पहार दरी।।
एक अधार साधु संगति कौ रचि पचि के संचरी।
भ न सोचि सोचि जिय राखी अपनी धरनि धरी।।
मेरी मुकति बिचारत हौ प्रभु पूंछत पहर घरी।
स्त्रम तैं तुम्हें पसीना ऐहैं कत यह जकनि करी।।
सूरदास बिनती कहा बिनवै दोषहिं देह भरी।
अपनो बिरद संभारहुगै तब यामें सब निनुरी।।
भावार्थ – सूरदास जी कहते हैं कि हे प्रभु, यदि तुम पापों का उद्धार करने वाले हो। तो मैं भी पापों को असीमता के साथ करूंगा। और देखूंगा यदि तुमने मेरे समस्त पापों का उद्धार कर दिया तो मैं इस बात पर विश्वास कर लूंगा। और अब देखते हैं कि हम में से कौन यह बाजी जीतता है। आज मैं तुम्हारे कमल रूपी नेत्रों से छुपकर पाप रूपी पहाड़ों की गुफा में तेरे दीदार के लिए बैठा हुआ हूं।
हमारे निर्धन के धन राम।
चोर न लेत, घटत नहि कबहूं आवत गढैं काम।।
जल नहिं बूडत, अगिनि न दाहत है ऐसौ हरि नाम।
बैकुंठनाम सकल सुख दाता, सूरदास सुख धाम।।
भावार्थ – प्रस्तुत दोहे में सूरदास जी ने भगवान राम को समस्त गरीबों का अनमोल धन कहा है। उनके अनुसार राम रूपी धन को ना ही कोई चोर चुरा सकता है, ना इसे खर्चने से इसमें किसी प्रकार की कोई कमी आती है। साथ ही यह ना तो पानी में डूबता है और ना ही आग में जलता है।
यह तो गरीबों के संकटों का समाधान करता है। इसलिए हे प्रभु राम! आप समस्त प्रकार के सुखों को देने वाले हैं। कृपया आपका नाम रूपी धन जोकि मुझे मिला है। मैं उसे पाकर पूर्णतया संतुष्ट हो गया हूं।
मैया री मोहिं माखन भावै।
मधु मेवा पकवान मिठा मोहिं नाहिं रुचि आवे।।
ब्रज जुवती इक पाछें ठाड़ी सुनति स्याम की बातें,
मन मन कहति कबहुं अपने घर देखौ माखन खातें।
बैठें जाय मथनियां के ढिंग मैं तब रहौं छिपानी,
सूरदास प्रभु अन्तरजामी ग्वालि मनहिं की जानी।
भावार्थ – भगवान श्री कृष्ण माता जसोदा से कहते हैं कि मैया मेरी मुझे माखन बहुत पसंद है। इसके अलावा मुझे ना तो कोई पकवान भाता है और ना ही मीठा। ऐसे मैं भगवान श्री कृष्ण जब माता जसोदा से यह कह रहे होते हैं। तब एक युवती उनकी बातें छुपकर सुन रही होती है।
और उसे याद आ जाता है कि कैसे भगवान श्री कृष्ण उसके घर आए थे और माखन खाया था। सूरदास जी कहते हैं कि भगवान श्री कृष्ण उस युवती के मन को पढ़ लेते हैं क्योंकि वह तो जगत के पालनहार है।
चोरि माखन खात चली ब्रज घर घऱनि यह बात।
नंद सुत संग सखा लीन्हें चोरि माखन खात।।
कोउ कहति मेरे भवन भीतर अबहिं पैठे धाइ।
कोउ कहति मोहिं देखि द्वारें उतहिं गए पराइ।।
कोउ कहति किहि भांति हरि कों देखौं अपने धाम।
हेरि माखन देंउ आछो खाइ जितनो स्याम।।
कोउ कहति मैं देखि पाऊं भरि धरौं अंकवारि।
कोउ कहति मैं बांधि राखों को सकैं निरवारि।।
सूर प्रभु के मिलन कारन करति बुद्धि विचार।
जोरि कर बिधि को मनावतिं पुरुष नंदकुमार।।
भावार्थ – सूरदास जी उपयुक्त दोहे में उस दौर का वर्णन करते हैं। जब ब्रज की गलियों में यह बात सबको पता लग गई थी। कि भगवान श्री कृष्ण अपने बाल सखा के संग मिलकर सबके घरों से माखन चुराने जाया करते हैं। जिस पर ब्रज की सभी ग्वालिन एक दूसरे से कहती हैं कि यदि कान्हा मेरे द्वारे आ जाएं तो मैं उन्हें सबसे बढ़िया वाला माखन खाने को दूंगी।
तो वही दूसरी ग्वालिन कहती है कि यदि कन्हैया मेरे घर आएंगे तो मैं उन्हें बांधकर रख लुंगी ताकि कोई उन्हें मुझसे दूर ना कर सके। इतना ही नहीं कुछ ग्वालिन तो नंद बाबा के पुत्र को अपना पति बना लेना चाहती है। जिसपर सूरदास जी कहते हैं कि ब्रज का प्रत्येक व्यक्ति भगवान श्री कृष्ण के दर्शन को व्याकुल रहता है।
सूरदास का काव्यगत सौंदर्य
सूरदास जी ने अपनी काव्य रचनाओं में मुख्यता भगवान श्री कृष्ण की बाल लीलाओं का वर्णन किया है। इन्होंने अपने काव्य में अधिकतर ब्रज भाषा का प्रयोग किया है। साथ ही इनकी रचनाओं में गीत शैली, भावात्मक शैली और व्यंग्य शैली का प्रयोग हुआ है।
इन्होंने रूपक, उपमा, अतिशयोक्ति और उत्प्रेक्षा अलंकार का अनूठा प्रयोग किया है। इसके अलावा सूरदास के काव्य में वियोग श्रृंगार का प्रयोग देखने को भी मिलता हैं।
इस प्रकार, सूरदास के दोहे (Surdas ke Dohe) यहीं समाप्त होते है। उम्मीद है कि आपको हमारा यह लेख पसंद आया होगा। ऐसे ही अन्य लेखों को पढ़ने के लिए Gurukul99 पर दुबारा आना ना भूलें।
