जीवन का अर्थ क्या है?

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जीवन का अर्थ क्या है

एक मनुष्य के धरती पर जन्म लेने के साथ ही जन्म लेती हैं उसकी जिज्ञासा, उसकी बुद्धि, उसकी तार्किकता और उसकी भावनाएँ। पृथ्वी पर हमारे साथ रहने वाले अन्य जीवों और मनुष्यों में सबसे बड़ा यही भेद है कि मानव जाति के पास सोचने और समझने की शक्ति है, अपने आस-पास घटित हो रही घटनाओं का विश्लेषण करने लायक बुद्धि है, और इनके साथ ही उसके चित्त में चेतना विराजमान है। 

इसलिए प्राचीनकाल से ही मानवीय सभ्यताओं में बस रहे मानुष अपने अस्तित्व को जानने का प्रयत्न करते आए हैं। साथ ही उन्होंने बहुत से प्रश्नों के उत्तर ढूँढने और जानने का प्रयास भी किया और अपनी समझ और विचारों के आधार पर मनुष्यों के मन में उठने वाले प्रश्नों के उत्तर प्रदान किए और धीरे-धीरे ऐसे प्रश्नों और उनके उत्तरों को एक साथ दर्शन शास्त्र के रूप में प्रस्तुत किया गया। 

आज के इस लेख में हम उन तमाम प्रश्नों में से मानव के मस्तिष्क में सबसे पहले उठने वाला प्रश्न का विश्लेषण करेंगे। आज के लेख को पढ़कर आपका परिचय जीवन के सत्य, जीवन के अर्थ और जीवन के उद्देश्य के बारे में विभिन्न ज्ञानियों द्वारा प्रस्तुत किए गए सिद्धांतों के साथ होगा। अगर आप इस प्रश्न का उत्तर जानने की लगन रखते है तो इस लेख को अवश्य ही पूरा पढ़ें।

परिचय 

जीवन का वास्तविक अर्थ समझने का प्रयास मनुष्य सदियों से करता आ रहा है और उसने इस प्रश्न का उत्तर ढूंढते हुए कई निश्कर्ष भी निकाले हैं जिन्हें हम आज के इस लेख द्वारा जानने और समझने का प्रयत्न करेंगे। संसार में सबसे पहले मानवीय सभ्यता की शुरुआत भारतवर्ष में हुई और परिणाम स्वरूप सबसे पहले दर्शन शास्त्र की शुरुआत भी भारत में ही हुई। 

इसलिए हम आज के इस विषय के बारे में सबसे पहले भारतीय दर्शन की दृष्टि से जानेंगे। उसके पश्चात इस विषय पर पाश्चात्य दार्शनिकों के कथन पर भी प्रकाश डालने का प्रयास करेंगे। साथ ही हर उत्तर का विवरण कर उसे पूर्ण रूप से समझने और उस पर चिंतन करने का लक्ष्य अपने मस्तिष्क में रखते हुए चलिए आरंभ करते हैं। 

भारतीय दर्शन की मान्यताएँ 

जैसा कि आप जानते होंगे कि भारतीय दर्शन का प्रारंभ वेदों में हो होता दिखता है। इसलिए जीवन के प्रश्नों का उत्तर ढूंढने के लिए वेदों में दिए ज्ञान को समझ अत्यंत महत्त्वपूर्ण हो जाता है। 

उपनिषद कहते हैं – चरैवेति, चरैवेति अर्थात् चलते रहो। चलते रहने का नाम जीवन है। हर स्थिति और परिस्थिति में आगे ही बढ़ते जाने का नाम जीवन है। जीवन में निराश और हताश होकर लक्ष्य की प्राप्ति नहीं की जा सकती। जो समय निकल गया उसकी चिंता छोड़कर जो जीवन शेष बचा है उसके बारे में विचार करने का उपदेश उपनिषदों में मिलता है।

इस बचे हुए जीवन की धारा को धीरे-धीरे भौतिक जगत से अध्यात्म में लाने की जरूरत है। हममें बहुत से लोग शायद कर्म या भाग्य को न भी मानें, पर हम सबका अधिकार केवल कर्म करना, सदाचार और अनुग्रह करने का ही है। शुभ कर्म करना ही अपने आप में एक तृप्ति है।

जब तक हम सोते रहेंगे तो हमारा भाग्य भी सोता रहता है और जब हम उठकर चल पड़ते है, तो हमारा भाग्य भी साथ हो लेता है। गीता का सर्वप्रिय और सर्वविदित उपदेश भी यही है कि फल की चिंता किए बिना सत्कर्मो में प्रवृत्त हो जाएं और अपने इस देव दुर्लभ मानव जीवन को सफल करे।

हमारे मनीषी बताते है कि भाग्य को केवल आलसी कोसा करते है और पुरुषार्थी आलस्यरहित रहना ठीक समझता है। साधारणतया जिसे हम भाग्य या प्रारब्ध कहते है वह हमारे पूर्व-संचित कर्म ही होते है। मनुष्य एक विचारशील प्राणी है और मानव जीवन दुर्लभ और अमूल्य माना गया है।

जो ईश्वर पर विश्वास रखकर कर्म और पुरुषार्थ करते है उन्हे सफलता मिल जाती है। संसार का बनना-बिगड़ना ईश्वर के ही अधीन है। ईश्वर का हर काम नियमानुसार होता है। ईश्वर का सान्निध्य पाकर, पुरुषार्थी बनकर, कर्म करते हुए हम सुखी रह सकते है।

पाश्चात्य दार्शनिकों की मान्यताएँ 

पूर्व और पश्चिम के दर्शन भी एक पैटर्न का पालन करते हैं: पूर्वी लोग “हम”, समुदाय के संदर्भ में सोचते हैं, जबकि पश्चिमी लोग “मैं”, व्यक्ति के संदर्भ में सोचते हैं।

ग्रीक दार्शनिक प्लेटो के अनुसार, जीवन का अर्थ ज्ञान की खोज है। उनका मानना था कि हम सभी अपने अंदर सभी ज्ञान के साथ पैदा हुए हैं, लेकिन हमें इसे याद करना होगा या इसे फिर से खोजना होगा, और यह हर मनुष्य का धर्म है।

यूनानी दार्शनिक अरस्तु के अनुसार कोई भी व्यक्ति किसी अन्य लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रयास करते हुए आदर्श जीवन नहीं जीता है। एक अच्छा इंसान होना अपने आप में काफ़ी है। पुण्य लक्ष्य है। सद्गुणों की कोई सूची नहीं है क्योंकि हम सभी जानते हैं कि वे क्या हैं। सदाचार और नैतिकता के नियम अरस्तू के अनुसार एक सैद्धांतिक अवधारणा नहीं हैं। एक इंसान जानता है कि क्या अच्छा है और क्या बुरा। 

दार्शनिक डेकार्ट के अनुसार जीवन का अर्थ व्यक्ति की मानसिक स्थिति के आधार पर अलग-अलग होता है। जितना अधिक व्यक्ति अपने स्वयं के द्वारा निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करता है, उतना ही अधिक सार्थक उसका जीवन होता है। 

अंग्रेजी दार्शनिक और चिकित्सक जॉन लोके के अनुसार एक व्यक्ति स्वाभाविक रूप से यह चुनने के लिए स्वतंत्र है कि किसी अन्य व्यक्ति की अनुमति के बिना उसे क्या करना है। उनके लिए जीवन का अर्थ राजनीतिक दबाव के खिलाफ व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा करना है। 

जर्मन दार्शनिक कांट के अनुसार प्रत्येक मानव क्रिया को एक सार्वभौमिक सूक्ति, या सिद्धांत के अनुसार आंका जाना चाहिए। अतः जीवन की सार्थकता सार्वभौमिक सिद्धांतों का पालन करने के अपने कर्तव्य को पूरा करने में है।

सारांश 

आज के इस लेख में हमने संसार भर से विभिन्न दार्शनिकों के ज्ञान का वर्णन कर जीवन का अर्थ समझाने का प्रयास किया है। इसके अतिरिक्त हमने आपको इस विषय को और गहराई से समझाने के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के दर्शनों की भी सहायता ली है और उनका विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया है। आशा है इस लेख के माध्यम से इस विषय में आपकी स्पष्टता में वृद्धि अवश्य ही हुई होगी। 

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