क्रांतिकारियों तथा देशभक्तों के त्याग व बलिदान के कारण ही आज हमारा देश आज़ाद है। भारत एक हर युवा में देश भक्ति झलकती है ,आज इस लेख में हमने कुछ देश भक्ति कविताओं का संग्रह किया है।
Patriotic Poem in Hindi by Harivansh RayBacchan
विजयी विश्व तिरङ्गा प्यारा
यह कविता लेखक श्याम लाल गुप्ता द्वारा लिखी गयी है। इस कविता में कवि ने हमारे तिरंगे को विश्व विजयी बताया है। तिरंगा हमारे देश की शान तथा गौरव का प्रतीक है । इलसिए इसे सदैव ऊँचा रहना चाहिए।
कविता
विजयी विश्व तिरंगा प्यारा,
झंडा ऊंचा रहे हमारा।
सदा शक्ति बरसाने वाला,
प्रेम सुधा सरसाने वाला,
वीरों को हरषाने वाला,
मातृभूमि का तन-मन सारा।। झंडा…।
स्वतंत्रता के भीषण रण में,
लखकर बढ़े जोश क्षण-क्षण में,
कांपे शत्रु देखकर मन में,
मिट जाए भय संकट सारा।। झंडा…।
इस झंडे के नीचे निर्भय,
लें स्वराज्य यह अविचल निश्चय,
बोलें भारत माता की जय,
स्वतंत्रता हो ध्येय हमारा।। झंडा…।
आओ! प्यारे वीरो, आओ।
देश-धर्म पर बलि-बलि जाओ,
एक साथ सब मिलकर गाओ,
प्यारा भारत देश हमारा।। झंडा…।
इसकी शान न जाने पाए,
चाहे जान भले ही जाए,
विश्व-विजय करके दिखलाएं,
तब होवे प्रण पूर्ण हमारा।। झंडा…।
विजयी विश्व तिरंगा प्यारा,
झंडा ऊंचा रहे हमारा।
आज़ादी का गीत
यह कविता हरिवंश राय बच्चन द्वारा लिखी गयी है। लेखक ने इस कविता में देश की आजादी का वर्णन किया है।
कविता
हम ऐसे आज़ाद, हमारा
झंडा है बादल!
चांदी, सोने, हीरे, मोती
से सजतीं गुड़ियाँ,
इनसे आतंकित करने की बीत गई घड़ियाँ,
इनसे सज-धज बैठा करते
जो, हैं कठपुतले।
हमने तोड़ अभी फैंकी हैं
बेड़ी-हथकड़ियाँ;
परम्परा पुरखों की हमने
जाग्रत की फिर से,
उठा शीश पर हमने रक्खा
हिम किरीट उज्जवल!
हम ऐसे आज़ाद, हमारा
झंडा है बादल!
हरी भरी धरती हो
यह कविता कमलेश कुमार दीवान के द्वारा रचयित है । इस कविता में लेखक ने धरती के समृद्ध तथा खुशहाल होने का वर्णन किया है। उन्होने समृद्ध भूमि पर फहराते हुए तिरंगे का वर्णन किया है।
कविता
हरी भरी धरती हो
नीला आसमान रहे
फहराता तिरँगा,
चाँद तारों के समान रहे।
त्याग शूर वीरता
महानता का मंत्र है
मेरा यह देश
एक अभिनव गणतंत्र है
शांति अमन चैन रहे,
खुशहाली छाये
बच्चों को बूढों को
सबको हर्षाये
हम सबके चेहरो पर
फैली मुस्कान रहे
फहराता तिरँगा चाँद
तारों के समान रहे।
जिसे देश से प्यार नहीं हैं
यह कविता लेखक श्रीकृष्ण सरल द्वारा लिखी गयी है । इस कविता में वह कहना चाहते है कि जिन लोगों को देख से प्रेम नहीं है उन्हें जीने का कोई अधिकार नहीं है। लेखक का कहना है कि हमे अपने देश के प्रति आदर सम्मान तथा प्रेम का भाव होना चाहिए।
कविता
जिसे देश से प्यार नहीं हैं
जीने का अधिकार नहीं हैं।
जीने को तो पशु भी जीते
अपना पेट भरा करते हैं
कुछ दिन इस दुनिया में रह कर
वे अन्तत: मरा करते हैं।
ऐसे जीवन और मरण को,
होता यह संसार नहीं है
जीने का अधिकार नहीं हैं।
मानव वह है स्वयं जिए जो
और दूसरों को जीने दे,
जीवन-रस जो खुद पीता वह
उसे दूसरों को पीने दे।
साथ नहीं दे जो औरों का
क्या वह जीवन भार नहीं है?
जीने का अधिकार नहीं हैं।
साँसें गिनने को आगे भी
साँसों का उपयोग करो कुछ
काम आ सके जो समाज के
तुम ऐसा उद्योग करो कुछ।
क्या उसको सरिता कह सकते
जिसम़ें बहती धार नहीं है?
जीने का अधिकार नहीं हैं।
घायल हिन्दुस्तान
यह कविता लेखक हरिवंश राय बच्चन द्वारा लिखी गयी है। लेखक ने इस कविता में घायल हिंदुस्तान का वर्णन करते हुए यह जताया है कि उन्हें विश्वास है कि हिंदुस्तान एक दिन फिर उठ खड़ा होगा।
कविता
मुझको है विश्वास किसी दिन
घायल हिंदुस्तान उठेगा।
दबी हुई दुबकी बैठी हैं
कलरवकारी चार दिशाएँ,
ठगी हुई, ठिठकी-सी लगतीं
नभ की चिर गतिमान हवाएँ,
अंबर के आनन के ऊपर
एक मुर्दनी-सी छाई है,
एक उदासी में डूबी हैं
तृण-तरुवर-पल्लव-लतिकाएँ;
आंधी के पहले देखा है
कभी प्रकृति का निश्चल चेहरा?
इस निश्चलता के अंदर से
ही भीषण तूफान उठेगा।
मुझको है विश्वास किसी दिन
घायल हिंदुस्तान उठेगा।
एकता की पुकार
इस कविता में लेखक ने एकता के बारे में वर्णन किया है। उनका कहना है कि मंदिर और मस्जिद एक ही है। इश्वर और अल्लाह में कोई भेद नहीं है। हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई सभी एक सामान है। हम सबको भी एक साथ मिल जुलकर रहना चाहिए।
कविता
कृष्ण या करीम की कुदरत अलग कोई नहीं,
अल्लाह या ईश्वर, तेरी सूरत अलग कोई नहीं।
पान गंगा-जल करो, या आबे ज़म ज़म को पियो,
जल तत्व इनमें एक है, रंगत अलग कोई नहीं।
महादेव तो मंदिर मंे हैं, और मुस्तफ़ा मस्जिद में,
है पुरान-कुरान की आयत अलग कोई नहीं।
राम या रहमान हो, एक सीप के मोती हैं दो,
मुल्ला-पुजारी की है इबादत अलग कोई नहीं।
नरक या दोज़ख़ बुरे हैं, पापियांे के वास्ते,
हिंदुओं के स्वर्ग से जन्नत अलग कोई नहीं।
हिंदू, मुस्लिम, पारसी, ईसाई, यहूदी, क्रिश्चियन,
एक पिता के पुत्र हैं, माता अलग कोई नहीं।
उठो, धरा के अमर सपूतों
यह कविता द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी के द्वारा लिखी गयी है। वह इस कविता के माध्यम से देश के युवाओं को कर्मनिष्ठ तथा परिश्रमी होने के लिए प्रेरित करना चाहते है।
कविता
उठो, धरा के अमर सपूतों।
पुन: नया निर्माण करो।
जन-जन के जीवन में फिर से
नव स्फूर्ति, नव प्राण भरो।
नई प्रात है नई बात है
नया किरन है, ज्योति नई।
नई उमंगें, नई तरंगें
नई आस है, साँस नई।
युग-युग के मुरझे सुमनों में
नई-नई मुस्कान भरो।
उठो, धरा के अमर सपूतों।
पुन: नया निर्माण करो।।1।।
डाल-डाल पर बैठ विहग कुछ
नए स्वरों में गाते हैं।
गुन-गुन, गुन-गुन करते भौंरें
मस्त उधर मँडराते हैं।
नवयुग की नूतन वीणा में
नया राग, नव गान भरो।
उठो, धरा के अमर सपूतों।
पुन: नया निर्माण करो।।2।।
कली-कली खिल रही इधर
वह फूल-फूल मुस्काया है।
धरती माँ की आज हो रही
नई सुनहरी काया है।
नूतन मंगलमय ध्वनियों से
गुँजित जग-उद्यान करो।
उठो, धरा के अमर सपूतों।
पुन: नया निर्माण करो।।3।।
सरस्वती का पावन मंदिर
शुभ संपत्ति तुम्हारी है।
तुममें से हर बालक इसका
रक्षक और पुजारी है।
शत-शत दीपक जला ज्ञान के
नवयुग का आह्वान करो।
उठो, धरा के अमर सपूतों।
पुन: नया निर्माण करो।।4।।
मेरा देश
यह कविता महेन्द्र भटनागर द्वारा लिखी गयी है। लेखक ने इस कविता में हमारे देश का वर्णन किया है।
कविता
प्रत्येक दिशा में आशातीत
प्रगति के लम्बे डग भरता, ‘वामन-पग’ धरता
मेरा देश निरन्तर बढ़ता है !
पूर्ण विश्व-मानव की
सुखी सुसंस्कृत अभिनव मानव की मूर्ति
अहर्निश गढ़ता है !
मेरा देश निरन्तर बढ़ता है !
प्रतिक्षण सजग
महत् आदर्शों के प्रति,
बुद्धि-सिद्ध
विश्वासों के प्रति।
मेरा देश
सकल राष्ट्रों के मध्य अनेकों
सहयोगों के,
पारस्परिक हितों के,
आधार सुदृढ़
निर्मित करता है !
तम डूबे
कितने-कितने क्षितिजों को
मैत्री की नूतन परिभाषा से
आलोकित करता है !
समता की
अनदेखी
अगणित राहों को
उद्घाटित करता है !
उसने तोड़ दिये हैं सारे
जाति-भेद औ वर्ण-भेद,
नस्ल भेद औ’ धर्म-भेद।
सच्चे अर्थों में
मेरा देश
मनुज-गौरव को
सर्वोपरि स्थापित करता है !
मृतवत्
मानव-गरिमा को
जन-जन में
जीवित करता है !
मेरा देश
प्रथमतः
भिन्न-भिन्न
शासन-पद्धित वाले राष्ट्रों को
अपनाता है !
शांति-प्रेम का
अप्रतिम मंत्र
जगत में गुँजित कर
भीषण युद्धों की
ज्वाला से आहत
मानवता को
आस्थावान बनाता है !
संदेहों के
गहरे कुहरे को चीर
गगन में
निष्ठा-श्रद्धा के
सूर्य उगाता है !
उन्नति के
सोपानों पर चढ़ता
मेरा देश,
निरन्तर
बहुविध
बढ़ता मेरा देश !
प्रतिश्रुत है —
नष्ट विषमता करने,
निर्धनता हरने !
जन-मंगलकारी
गंगा घर-घर पहुँचाने !
होठों पर
मुसकानों के फूल खिलाने,
जीवन को
जीने योग्य बनाने !
वीर तुम बढ़े चलो!
यह कविता द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी द्वारा लिखी गई है। लेखिका युवाओं को, देश के वीरों को आगे बढ़ते जाने के लिए प्रेरित कर रही है। चाहे कितनी ही बड़ी मिश्किल क्यों न आ जाये परन्तु घबरा कर हार नहीं मन्ना चाहिए उसका डट कर सामना करना चाहिए।
कविता
वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो!
वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो!
हाथ में ध्वजा रहे, बाल दल सजा रहे!
ध्वज कभी झुके नहीं, दल कभी रुके!
नहीं वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो!
सामने पहाड़ हो, सिंह की दहाड़ हो!
तुम निडर डरो नहीं, तुम निडर डटो वहीं!
वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो!
प्रात हो कि रात हो, संग हो न साथ हो!
सूर्य से बढ़े चलो, चन्द्र से बढ़े चलो!
वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो!
एक ध्वज लिये हुए, एक प्रण किये हुए!
मातृ भूमि के लिये, पितृ भूमि के लिये!
वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो!
अन्न भूमि में भरा, वारि भूमि में भरा!
यत्न कर निकाल लो, रत्न भर निकाल लो!
वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो!
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