रस – परिभाषा, भेद और उदाहरण – Ras in Hindi

रस के परिभाषा – Ras ki Paribhasha

हिंदी साहित्य में लेखन की दो पद्वतियां होती हैं, जिनमें से एक को गघ और दूसरे को काव्य कहते हैं। रस काव्य की आत्मा होती है। यानि जिससे हृदय को हर्ष, मन को शांति और दिमाग को स्थिरता का अनुभव होता है, हिंदी भाषा में उस आनंद अनुभूति को रस कहते हैं।

रस का मूल अर्थ निचोड़ या भाव युक्त आनंद से लगाया जाता है। काव्य में रस की अनुभूति लौकिक ना होकर अलौकिक होती है। इस प्रकार, रसयुक्त वाक्य ही काव्य कहलाते हैं।

रस की उत्पति का श्रेय मुख्य रूप से भरत मुनि को दिया जाता है। जिन्होंने रस की उत्पत्ति के लिए विभाव, अनुभाव, स्थायी भाव और संचारी भाव को जिम्मेदार बताया है। ऐसे में जो वस्तु या व्यक्ति हृदय में भावों को उत्पन्न करते हैं, वह रस का विभाव होता है।

दूसरी ओर, हृदय में उत्पन्न भावों को व्यक्त करने के लिए शरीर के जिन अंगों का प्रयोग किया जाता है, वह रस का अनुभाव कहलाते हैं। इसी तरह से, जब हृदय के भावों को स्थानीय भावों के साथ संचारित किया जाता है, तब वहां संचारी भाव होता है। जिसे व्यभिचारी भाव भी कहते हैं। इसके बाद रस में स्थायी भाव वहीं होता है जो उसे अंतिम अवस्था तक ले जाता है। इसलिए इसे प्रधान भाव भी कहते हैं।

रस के प्रकार – Ras ke Bhed

रस मुख्यता नौ प्रकार के होते हैं।

  1. श्रृंगार रस – जब काव्य में मौजूद नायक और नायिका के मन में बसा प्रेम आस्वादन के चरण में पहुंच जाता है, तब उसे श्रृंगार रस कहते हैं। इसे रसराज या रसपति भी कहा जाता है। श्रृंगार रस का स्थायी भाव रति होता है।

    जैसे – खंजन मंजु तिरीछे नैनिनी। निजपति कहहि तिन्हहीं सिय सैननि।।

    अर्थ – उपरोक्त काव्य में उस समय का वर्णन किया गया है। जब गांव की स्त्रियां माता सीता से पूछती है कि ये श्यामल वर्ण और माथे पर तेज धारण करे हुए पुरुष तुम्हारे कौन हैं? जिस पर माता सीता अपने खंजन पक्षी समान सुन्दर नेत्रों से इशारा करते हुए गांव की महिलाओं से कहती है कि वह मेरे पति (श्री राम) हैं। जिसे सुनकर गांव की स्त्रियां बिल्कुल ऐसे आनंदित होती है कि जैसे मानो उन्होंने तिजोरी का खजाना पा लिया हो।

    इस पद में श्रृंगार रस है। जिसका स्थायी भाव रति है। इसमें माता सीता आलंबन और भगवान श्री राम आश्रय है। गांव की स्त्रियों का प्रश्न पूछना अनुभाव और आनंदित होना संचारी भाव दर्शाता है। यह दो प्रकार के होते हैं।

    1. संयोग श्रृंगार – जब किसी काव्य में नायक और नायिका के पारस्परिक मिलन को दर्शाया जाता है, तब वहां संयोग श्रृंगार होता है। जैसे – बतरस लालच लाल की, मुरली धरि लुकाय।सौंह करो, भौंहनि हंसै, दैंन अहै, नहि जाय।।

      उपयुक्त दोहे में गोपियां कृष्ण जी की बांसुरी चुराकर उनके निकट आने की कोशिश करती हैं। इस प्रकार, इस पद में संयोग श्रृंगार का वर्णन किया गया है।
    2. वियोग श्रृंगार – जब किसी काव्य में नायक और नायिका के परस्पर बिछड़ने की दशा का वर्णन होता है, तब वहां वियोग श्रृंगार होता है। जैसे – निसिदिन बरसत नयन हमारे,सदा रहति पावस ऋतु हम पै जब ते स्याम सिधारे।।

      उपरोक्त दोहे में गोपियां श्री कृष्ण से विरह की स्थिति में है। इस प्रकार इस पद में वियोग श्रृंगार का प्रयोग किया गया है।

2. हास्य रस – काव्य में मौजूद जिस वस्तु, व्यक्ति या विकार को देखने से मन में हास्य की उत्पत्ति होती है, उसे हास्य रस कहते हैं। जैसे – मैं यह तोहीं मै लखी भगति अपूरब बाल।लहि प्रसाद माला जु भौ तनु कदंब की माल।।

उपरोक्त दोहे में एक प्रेमी द्वारा प्रेमिका को स्पर्श करने पर उसकी सखी द्वारा हास भाव को दर्शाया गया है। हास्य रस का स्थायी भाव हास है।


3. रौद्र रस – जब किसी काव्य में एक पक्ष द्वारा दूसरे पक्ष पर क्रोधका भाव प्रदर्शित किया जाता है, तब वहां रौद्र रस होता है। रौद्र रस का स्थायी भाव क्रोध होता है। जैसे – उस काल मारे क्रोध के तन कांपने उसका लगा,मानो हवा के जोर से सोता हुआ सागर जगा।।
उपरोक्त पद में रौद्र रस है जिसका स्थायी भाव क्रोध है।


4. करुण रस – जब किसी पद में एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति से जुदा होने, द्रव्य नाश, विनाश या बिछुड़ने का भाव प्रदर्शित होता है। तब वहां करुण रस होता है। दूसरे शब्दों में, जब किसी पद में दुख और वियोग का जिक्र किया जाता है तो वह करुण रस कहलाता है। इसका स्थायी भाव शोक होता है। जैसे – इष्टनाश कि अनिष्ट की, आगम ते जो होई। दुख सोक थाई जहां, भाव करून सोई।।
उपरोक्त पद में करुण रस का प्रयोग किया गया है।


5. वीर रस – वीर रस का स्थायी भाव उत्साह होता है। जब किसी काव्य में शत्रु को हराने और धर्म का उद्धार करने को लेकर नायक के मन में उत्साह का भाव संचारित होता है, तब उसे वीर रस कहते हैं। जैसे – जब कवित्त में सुनत ही व्यंग्य होय उत्साह। तहां वीर रस समझियो चौबिधि के कविनाह।।
उपरोक्त पद में वीर रस का प्रयोग किया गया है।


6. अद्भुत रस – जब काव्य में किसी वस्तु या व्यक्ति को देखकर हृदय में आश्चर्य का भाव उत्पन्न होता है, तब उसे अद्भुत रस कहते हैं। इसका स्थायी भाव आश्चर्य होता है। जैसे – आहचरज देखे सुने बिस्मै बाढ़त। चित्त अद्भुत रस बिस्मय बढ़ै अचल सचकित निमित्त।।
उपरोक्त पद में आश्चर्य रस का प्रयोग किया गया है।


7. वीभत्स रस – जब किसी पद में उपस्थित घृणित चीज़ों को देखकर, उनके बारे में जानकर या सुनकर मन में घृणा या ग्लानि का भाव उत्पन्न होता है तब वहां वीभत्स रस होता है। इसका स्थायी भाव जुगुप्सा होता है। जैसे – जा दिन मन पंछी उड़ी जैहै।ता दिन मैं तनकै विष्ठा कृमि कै हृ खाक उड़ैहैं।।
उपरोक्त पद में वीभत्स रस का प्रयोग किया गया है।


8. भयानक रस – जब किसी  घटित हुई घटना के बारे में सोचकर मन में भय उत्पन्न होता है तो उसे भयानक रस कहते हैं। इसका स्थायी भाव भय होता है। जैसे – आज बचपन का कोमल गातजरा का पीला पातचार दिन सुखद चांदनी रातऔर फिर अंधकार अज्ञात।।
उपरोक्त काव्य में भयानक रस का प्रयोग किया गया है।


9. शांत रस – जब किसी काव्य में दुख – सुख, आश्चर्य, द्वेष, राग आदि कुछ मौजूद नहीं होता है, तब वहां शांत रस होता है। इसका स्थायी भाव निर्वेद होता है। जैसे – अब लौं नसानी, अब न नसैहों।रामकृपा भव निसा सिरानी जागे फिर न डसैहौं।।
उपरोक्त काव्य में शांत रस का प्रयोग हुआ है।


10. वात्सल्य रस – जब काव्य या किसी पद में माता पिता के प्रति सम्मान, गुरु के प्रति सम्मान, अपनों से बड़ों का आदर दर्शाया जाता है, तब वहां वात्सल्य रस होता है। इसका स्थायी भाग अनुराग होता है। जैसे – बाल दसा सुख निरखि जसोदा, पुनि पुनि नंद बुलवाति।अंचरा तर लै ढ़ाकी सूरज, प्रभु कौ दूध पियावति।।
उपरोक्त पद में वात्सल्य रस का प्रयोग किया गया है।


11. भक्ति रस – जब काव्य में मुख्य तौर से ईश्वर के प्रति प्रेम और भक्ति का भाव प्रदर्शित होता है तो वहां भक्ति रस मौजूद होता है। इसका स्थायी भाव देव रति है। जैसे – एक भरोसो एक बल, एक आस विश्वासएक राम घनश्याम हित, चातक तुलसीदास।।
उपरोक्त पद में भक्ति रस का प्रयोग हुआ है।


अंशिका जौहरी

मेरा नाम अंशिका जौहरी है और मैंने पत्रकारिता में स्नातकोत्तर किया है। मुझे सामाजिक चेतना से जुड़े मुद्दों पर बेबाकी से लिखना और बोलना पसंद है।

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