Sanskrit Shlokas – संस्कृत श्लोक

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Sanskrit Shlokas

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संस्कृत विश्व की सब से प्राचीन भाषा होने के साथ-साथ, एक वैज्ञानिक भाषा भी है जो भारत के पूर्वजों द्वारा इस विश्व को भेंट स्वरूप प्रदान की गई है। संस्कृत के श्लोक [Sanskrit Shlokas] गागर में सागर भरने के सर्वश्रेष्ठ उदाहरणों के रूप में देखे जा सकते हैं। इन श्लोकों को समझकर एवं इनमें बताए गए उपदेशों का जीवन में निरंतर अभ्यास कर के जीवन के सत्य, तथा जीवन में आने वाली समस्याओं के समाधान पाए जा सकते हैं। ज्ञान के परम भंडार माने जाने वाले ग्रंथों से लिए गए ऐसे ही कुछ संस्कृत श्लोकों [Sanskrit Shlokas] को यहाँ अर्थ सहित प्रस्तुत किया गया है।

Sanskrit Shlokas With Hindi Meaning

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न जायते म्रियते वा कदाचिन् नायं भूत्वा भविता वा न भूयः ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ।।

अर्थात: श्रीमद्भागवत गीता के इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण कुंती पुत्र अर्जुन को उपदेश देते हुए कहते हैं कि आत्मा का जन्म नहीं होता, न ही आत्मा मृत्यु को प्राप्त होती है अथवा आत्मा का अस्तित्व कभी समाप्त नहीं हो सकता। आत्मा अजर है, अमर है, शाश्वत है। देह के नष्ट होने के बाद भी आत्मा कभी नष्ट नहीं होती।


वासांसि जीर्णानि यथा विहाय गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ।।

अर्थात: श्रीमद्भागवत गीता के इस श्लोक के माध्यम से कृष्ण कहते हैं कि जिस प्रकार मनुष्य मैले, फटे व पुराने वस्त्रों का त्याग कर नए तथा शुद्ध वस्त्रों को धारण करते हैं, उसी प्रकार मृत्यु के समय आत्मा मैले और पुराने शारीर का त्याग कर नए शरीर में प्रवेश करती है।


नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः। 
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ।।

अर्थात: अर्जुन को जीवन का ज्ञान प्रदान करते हुए माधव उन्हें बताते हैं कि आत्मा को ना शस्त्र मार सकते हैं, ना ही उसे अग्नि भस्म कर सकती है। न तो उसे जल भिगो सकता है और ना ही वायु उसे सुखा सकती है।


जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च ।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ।।

Sanskrit Shlok
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अर्थात: श्रीमद्भागवत गीता में ऋषि व्यास द्वारा लिखा गया है कि अर्जुन के असमंजस के दूर करते हुए माधव कहते हैं कि जिसका भी जन्म हुआ है उसकी मृत्यु होना निश्चित है। और मृत्यु को प्राप्त होने वाले हर जीव का पुनर्जन्म अवश्य ही होता है। अतः जिसका घटित होना निश्चित है उसके विषय में सोचकर तुम्हें शौक नहीं करना चाहिए।


त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन। 
निर्द्वेन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्  ।।

अर्थात: श्री कृष्ण पाण्डु पुत्र अर्जुन से कहते हैं कि वेदों में प्रकृति के तीन गुणों का वर्णन किया गया है। इन त्रिगुणों से ऊपर उठकर विशुद्ध आध्यात्मिक चेतना की ओर बढ़ो तथा परम सत्य में सदैव के लिए स्थित होकर, सभी प्रकार के द्वैतों से स्वयं को मुक्त करते हुए, भौतिक लाभ-हानि और सुरक्षा के विषय में सोच-विचार न करते हुए आत्मलीन हो जाओ।


यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके ।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ।।

अर्थात: श्रीमद्भागवत गीता से लिए गए इस श्लोक का अर्थ है कि जो व्यक्ति वास्तविक ज्ञान को धारण कर चुका है, उसके लिए वेदों की उतनी ही मूल्य रह जाता है जितना जल के एक छोटे कुँए का मूल्य एक विशाल झील के लिए होता है।


यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते  ।।

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अर्थात: ऋषि श्री व्यास लिखते हैं कि कृष्ण कुंती पुत्र अर्जुन बताते हैं कि, महान मनुष्यों के द्वारा किए गए कार्यों का समस्त लोग अनुसरण करते हैं। महान व्यक्ति जो मानक सुस्थापित करते हैं, सम्पूर्ण विश्व उसका पालन करता है।


यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत  ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्  ।।

अर्थात: वासुदेव कहते हैं कि जब-जब धरती पर संतुलन बनाए रखने वाले धर्म का नाश होगा, और बढ़ता हुआ अधर्म अपनी सीमाएँ लाँघेगा, जिसके कारण पैदा हुआ असंतुलन अस्थिरता का कारण बनेगा, हे अर्जुन! तब-तब मैं स्वयं द्वारा निर्मित धरती पर अपना निर्माण करूँगा।


परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे  ।।

अर्थात: भगवान श्री वासुदेव कहते है कि धरती पर  संतुलन बनाए रखने वाले धर्म की रक्षा करने हेतु एवं असंतुलन का कारण बनने वाले अधर्म का नाश करने और धर्म को पुनः स्थापित करने के प्रयोजन से मैं प्रकट होता हूँ। 


अलसस्य कुतो विद्या,अविद्यस्य कुतो धनम् ।
अधनस्य कुतो मित्रम् ,अमित्रस्य कुतः सुखम् ॥

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अर्थात: आलस करने वाले को विद्या प्राप्त नहीं होती, विद्या के बिना धन की प्राप्ति नहीं होती। धन के अभाव में मित्रों का साथ छूट जाता है, और मित्रों के बिना जीवन सुखदायी नहीं हो सकता।


येषां न विद्या न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः ।
ते मर्त्यलोके भुविभारभूता मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ।।

अर्थात: जिस मनुष्य के पास विद्या नहीं होती, और ना ही परिश्रम करने की चाह होती है। ना तो दान देने की इच्छा होती है, ना ज्ञान होता है। साथ ही ना शुद्ध, उच्च आचरण या कोई गुण होता है और ना ही धर्म का ज्ञान होता है, ऐसे मनुष्य धरती पर भार के समान होते हैं अथवा मानव रूप में धरती पर विचरते पशुओं की भाँति माने जाते हैं।


अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम् ।
परोपकारः पुण्याय पापाय परपीड़नम् ।।

अर्थात: महर्षि व्यास द्वारा लिखे गए अट्ठारह पुराणों में मूलतः दो ज्ञान की बातें लिखी गईं हैं। इनमें पहली बात यह है कि दूसरों के प्रति परोपकार का भाव व्यक्त करना ही सबसे बड़ा पुण्य है। दूसरी बात यह है कि दूसरों को दुःख देना, उन्हें कष्ट पहुँचाना ही सबसे बड़ा पाप है।


मित्राणि धन धान्यानि प्रजानां सम्मतानिव ।
जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ॥

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अर्थात: यह श्लोक रामचरितमानस से लिया गया है, जिसके माध्यम से महर्षि भारद्वाज श्री राम से कहते हैं कि मित्रों, धन अथवा धान्य का समस्त लोक में बहुत महत्व है, किंतु माता तथा जन्मभूमि का महत्व स्वर्ग से भी श्रेष्ठ है।

इस लेख में सम्मिलित संस्कृत श्लोकों [Sanskrit Shlokas] का जीवन में बहुत महत्व है। इन श्लोकों के अर्थ ठीक तरह समझकर जीवन को बेहतर, तथा अधिक सुंदर बनाया जाता सकता है।

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