कबीरदास के दोहे – Kabir ke Dohe in Hindi

Kabir ke dohe in Hindi

कबीरदास हिंदी साहित्य के भक्तिकालीन युग की निर्गुण शाखा के कवि थे। इन्होंने अपने काव्य के माध्यम से समाज में फैले पाखंड, अंधविश्वास और कर्मकांडो का पूर्ण बहिष्कार किया।

कबीरदास जी स्वयं पढ़े लिखे नहीं थे जिसके चलते इनके शिष्यों ने ही इनके ग्रंथों को संग्रहित किया। इसके अलावा कबीरदास जी सदैव ही समाज में हिन्दू मुस्लिम एकता को बनाए रखने के लिए प्रयासरत रहे।

साथ ही इन्होंने साखी, सबद, रमैनी इत्यादि के अंतर्गत अपने दोहों की रचना की। ऐसे में आज हम आपके लिए कबीरदास जी के दोहे अर्थ सहित लेकर आए हैं।

संदर्भ – प्रस्तुत दोहे संत कबीरदास जी की साखी, सबद और रमैनी आदि रचनाओं से लिए गए हैं। 

Kabir ke Dohe – T-Series Bhakti Sagar

Kabir Das ke Dohe (Kabir ke Dohe Arth Sahit)

1. गुरु गोविंद दोउ खड़े, काके लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो मिलाय।।

Kabir ke Dohe
Kabir ke Dohe

भावार्थ – इस संसार में गुरु ही ईश्वर प्राप्ति का एकमात्र सहारा है। इसलिए हमें जब ईश्वर और गुरु दोनों में से किसी एक के चरण स्पर्श करने को कहा जाए तो हमें सबसे पहले गुरु के चरण स्पर्श करने चाहिए क्योंकि गुरु के आशीर्वाद से ही हमें ईश्वर की प्राप्ति होती है।

2. काहैं कबीर देय तू, जब लग तेरी देह।
देह खेह होय जायगी, कौन कहेगा देह।।

भावार्थ – कबीरदास जी कहते है कि जब तक मनुष्य के शरीर में आत्मा का वास है उसे तब तक अच्छे कार्य करते रहना चाहिए। एक बार जब मनुष्य के शरीर से आत्मा निकल जाती है तो उसका शरीर मिट्ठी का ढेर हो जाता है इसलिए व्यक्ति को सदा ही अच्छे कार्यों में लिप्त रहना चाहिए।

3. चाह मिटी, चिंता मिटी मनवा बेपरवाह।
जिसको कुछ नहीं चाहिए वह शहनशाह।।

भावार्थ – कबीर कहते हैं कि इस दुनिया में सबसे बड़ा शहंशाह वही है जिसे कुछ भी पाने की चाह नहीं है क्योंकि जिस व्यक्ति का मन कुछ भी पाने और खोने से मुक्त हो जाता है, उसका मन सांसारिक मोह से बेपरवाह हो जाता है।

4. यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान।
शीश दियो जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान।।

Kabir das ke Dohe
Kabir Das ke Dohe

भावार्थ – कबीर कहते हैं कि मनुष्य का शरीर विष से भरा हुआ होता है। इसके विपरित गुरु के पास अमृत का भंडार होता है। ऐसे में यदि सच्चे गुरु को पाने की खातिर किसी को अपना सिर काटकर भी देना पड़े तो उसे सस्ता सौदा ही समझना चाहिए।

5. सब धरती काजग करू, लेखनी सब वनराज।
सात समुद्र की मसि करूं, गुरु गुण लिखा न जाए।।

भावार्थ – यदि इस सम्पूर्ण धरती को कागज की भांति बना लिया जाए और समस्त वृक्षों की कलम बना ली जाए। साथ ही सातों समुद्रों को स्याही बनाकर लिखा जाए तब भी गुरु के गुणों का व्याख्यान नहीं किया जा सकता है।

6. ऐसी वाणी बोलिए मन का आप खोए।
औरन को शीतल करे, आपहूं शीतल होय।।

kabir ke dohe
Kabir ke Dohe

भावार्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य को ऐसी वाणी का प्रयोग करना चाहिए जिससे सुनने वाले के मन को भी शांति मिले। इस प्रकार सौम्य भाषा के आधार पर व्यक्ति सामने वाले व्यक्ति को खुश रख सकता है।

7. बड़ा भया तो क्या भया, जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर।।

भावार्थ – जिस प्रकार से खजूर का पेड़ बड़ा तो होता है लेकिन वह ना तो किसी को फल देता है और ना ही छाया। ठीक उसी प्रकार से यदि आप पद और प्रतिष्ठा में बड़े है लेकिन किसी का भला नहीं कर पा रहे हैं तो आपके बड़पन्न का कोई फायदा नहीं है।

8. निंदक नियेरे राखिए, आंगन कुटी छावायें।
बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुहाए।।

Kabir Das ke Dohe
Kabir Das ke Dohe

भावार्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि व्यक्ति को यदि अपने व्यवहार में शीतलता लानी है तो उसे ऐसे व्यक्ति को अपने जीवन में पनाह देनी चाहिए जो आपकी गलतियां आपके सामने लाकर रख सके।

9. बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।
जो मन देखा आपना, मुझ से बुरा न कोय।।

भावार्थ – कबीर कहते हैं कि मैं जीवन भर दूसरों की गलतियां देखता रहा लेकिन जब मैंने स्वयं के भीतर झांककर देखा तो मुझे खुद से बुरा कोई नहीं मिला। ठीक उसी प्रकार से मनुष्य द्वारा दूसरों में गलतियां खोजने से बेहतर है स्वयं का आत्म चिंतन करना।

10. दुख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे, तो दुख काहे को होय।।

भावार्थ – व्यक्ति दुख के समय ही ईश्वर को याद करता है और सुख के दिनों में वह ईश्वर को भुला देता है। ऐसे में यदि सुख के दौरान भी व्यक्ति ईश्वर को याद करे तो वह जीवन में कभी दुखी नहीं होगा।

11. माटी कहे कुमार से, तू क्या रोंदे मोहे।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रोंदुंगी तोहे।।

भावार्थ – कबीर दास कहते हैं कि जिस प्रकार एक कुम्हार बर्तन बनाने के लिए मिट्टी को रौंदता है। फिर जीवन के अंतिम समय में वह स्वयं उसी मिट्टी में विलीन हो जाता है और वही मिट्ठी उसे रौंदती है।

12. पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात।
देखत ही छुप जाएगा है, ज्यों सारा परभात।।

भावार्थ – मनुष्य की इच्छाएं पानी में उठने वाले बुलबुलों के समान होती हैं। जो कुछ समय में तैयार होती हैं और कुछ समय में ही बैठ जाती हैं। ऐसे में जब व्यक्ति को जीवन में सच्चे गुरु की प्राप्ति होती है तभी वह सांसारिक मोह माया से छुटकारा पा लेता है।

13. चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोये।
दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोय।।

भावार्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि चलती चक्की देखकर उनकी दोनों आंखें भर आईं है क्योंकि उसके बीच में पीसकर कुछ भी साबुत नहीं बचता है।

14. मलिन आवत देख के, कलियन कहे पुकार।
फूले फूले चुन लिए, कलि हमारी बार।।

भावार्थ – जब एक मालिन बगीचे की ओर जाती है तब दो कलियां आपस में बातचीत करती है कि जब हम कल फूल बन जाएंगे तो यह हमें भी तोड़कर ले जाएगी। ठीक उसी प्रकार से व्यक्ति के जीवन में पड़ाव आते हैं। अभी यह जवान है, फिर वह बूढ़ा होता है और उसके बाद वह पंचतत्व में विलीन हो जाता है। 

15. काल करे सो आज कर, आज करे सो अब।
पल में परलय होएगी, बहुरि करेगा कब।।

भावार्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि व्यक्ति को समय की कीमत समझनी चाहिए। जिसके चलते उसे किसी भी कार्य को नियत समय पर पूरा करना चाहिए और उसे कल पर नहीं टालना चाहिए। 

16. ज्यों तिल माहि तेल है, ज्यों चकमक में आग।
तेरा साई तुझ ही में है, जाग सके तो जाग।।

भावार्थ – कबीर कहते हैं कि जिस प्रकार से तिल के अंदर तेल और आग के अंदर रोशनी विद्यमान है। ठीक उसी प्रकार से प्रत्येक मनुष्य के भीतर ईश्वर का वास है। जरूरत है तो सिर्फ उस ईश्वर को ढूंढने की। 

17. जहां दया तहा धर्म है, जहां लोभ वहां पाप।
जहां क्रोध तहा काल है, जहां क्षमा वहां आप।।

भावार्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि जहां दया वास करती है वहीं धर्म मौजूद होता है लेकिन जहां लोभ है वहां पाप मिलेगा और जहां क्रोध है वहां व्यक्ति का सर्वनाश हो जाता है। दूसरी ओर जहां क्षमा होती है वहां ईश्वर वास करते हैं।

18. जो घट प्रेम न संचारे, जो घट जान सामान।
जैसे खाल लुहार की, सांस लेत बिनु प्राण।।

भावार्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि जिस मनुष्य के भीतर दया और प्रेम का वास नहीं है वह मनुष्य मनुष्य नहीं बल्कि जानवर के समान है।

19. जल में बसे कमोदनी, चंदा बसे आकाश।
जो है जा को भावना सो ताहि के पास।।

भावार्थ – कबीर कहते हैं कि जब चन्द्रमा का प्रतिबिंब जल में दिखाई देता है तब वह धरती के समीप लगने लगता है। ठीक उसी प्रकार से जब कोई व्यक्ति ईश्वर से प्रेम करता है तब ईश्वर खुद चलकर उस व्यक्ति के पास आ जाते हैं।

20. जाती न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहने दो म्यान।।

भावार्थ – कभी भी किसी साधु से उसकी जाति के बारे में नहीं पूछना चाहिए बल्कि उसके ज्ञान को महत्व देना चाहिए। ठीक उसी प्रकार से जैसे म्यान की जगह उसकी तलवार का मोल भाव करना चाहिए।

21. जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय।
यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोय।।

भावार्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि इस संसार में जिस व्यक्ति का मन शांत और कोमल होता है उसका संपूर्ण संसार में कोई भी दुश्मन नहीं होता है।

22. ते दिन गए अकारथ ही, संगत भई न संग।
प्रेम बिन पशु जीवन, भक्ति बिना भगवंत।।

भावार्थ – जिस मनुष्य ने अब तक ना तो सज्जनों की संगति में निवास किया और ना ही प्रेम से जीवन व्यतीत किया। उसने अपना काफी समय व्यर्थ ही गुज़ार दिया है। तो वहीं जो व्यक्ति दिल से ईश्वर की भक्ति में लगा हुआ है उस पर ही ईश्वर की कृपा होती है।

23. तीरथ गए से एक फल, संत मिले फल चार।
सतगुरु मिले अनेक फल, कहे कबीर विचार।।

भावार्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि व्यक्ति को जहां तीर्थ यात्रा करने से एक ही पुण्य की प्राप्ति होती है तो वहीं ज्ञानी संतों की संगति से चार और गुरु के आश्रीवाद से अनेकों पुण्य मिलते हैं।

24. तन को जोगी सब करे, मन को विरला कोय।
सहजे सब विधि पाइए, जो मन जोगी होय।।

भावार्थ – कबीर कहते हैं कि इंसान प्रत्येक दिन अपने शरीर की सफाई करता है यदि वह तन के साथ साथ मन की सफाई भी करनी प्रारंभ कर दे तो वह सच्चा मनुष्य कहलाता है।

25. प्रेम न बारी उपजे, प्रेम न हाट बिकाय।
राजा प्रजा जो ही रुचे, सिस दे ही ले जाए।।

भावार्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि इस संसार में प्रेम किसी खेत या बाज़ार में नहीं मिलता है बल्कि यदि जीवन में प्रेम चाहिए तो व्यक्ति को काम, क्रोध, लोभ, भय और अहंकार त्यागना होगा।

26. जिन घर साधू न पूजिए, घर की सेवा नाही।
ते घर मरघट जानिए, भुत बसे तिन माहीं।।

भावार्थ – कबीर दास कहते हैं कि जिस घर में किसी साधु या सज्जन व्यक्ति को नहीं पूजा जाता है वह घर पापियों का कहलाता है। ऐसा घर मरघट के समान है जहां सिर्फ भूत प्रेत ही निवास करते हैं।

27. साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय।
सार सार को गहि रहै, थोथा देई उडाय।।

भावार्थ – सज्जन व्यक्ति को अनावश्यक बातों का त्याग करके केवल अच्छी बातें ही ग्रहण करनी चाहिए। ठीक उसी प्रकार से जैसे सूप में से अनाज को साफ करते समय मिट्टी और कंकड़ को अनाज के दानों से अलग कर दिया जाता है।

28. पाछे दिन पाछे गए हरी से किया न हेत।
अब पछताए होत क्या, चिड़िया चुग गई खेत।।

भावार्थ – यदि व्यक्ति ने अपने बीते समय में ना ही कोई परोपकार संबंधी कार्य किया और ना ही ईश्वर का ध्यान लगाया तो उसने अपना जीवन व्यर्थ ही गवायां है। ऐसे में अब पछताने से क्या होगा जब चिड़िया चुग गई खेत।

29. जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाही।
सब अंधियारा मिट गया, दीपक देखा माहीं।।

भावार्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि जब मेरे अंदर अहंकार की भावना थी तब मुझे ईश्वर के दर्शन ना हुए और आज जब ईश्वर के दर्शन हुए हैं तब मेरे अंदर का अहंकार समाप्त हो चुका है। उसी तरह जब से मुझे सच्चे गुरु की प्राप्ति हुई है तब से मेरे भीतर अंधकार खत्म हो चुका है।

30. नहाये धोए क्या हुआ, जो मन मैल न जाए।
मीन सदा जल में रहे, धोए बास न जाए।।

भावार्थ – मनुष्य कितना भी नहा धो ले लेकिन यदि उसका मन साफ नहीं है तो वह कभी भी श्रेष्ठ मनुष्य नहीं कहलाता है। ठीक उसी प्रकार से जैसे मछली दिन भर पानी में रहती है लेकिन फिर भी उसके पास से तेज दुर्गंध आती है।

31. प्रेम पियाला जो पिए, सिस दक्षिणा देय।
लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम  का लेय।।

भावार्थ – इस संसार में ईश्वर और प्रेम की प्राप्ति उसे ही होती है जो काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार का त्याग कर देता है।तो वहीं लालची व्यक्ति बिना इनका त्याग किए प्रेम को पाने की उम्मीद रखता है।

32. कबीरा सोई पीर है, जो जाने पर पीर।
जो पर पीर न जा, सो का पीर में पीर।।

भावार्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि जो व्यक्ति इस संसार में दूसरों का दर्द समझता है वहीं सज्जन व्यक्ति है अन्यथा जो दूसरों की पीड़ा नहीं समझता है ऐसे व्यक्ति के होने से किसी को कोई फायदा नहीं होता।

33. कबीरा ते नर अंध है, गुरु को कहते और।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर।।

भावार्थ – कबीर दास कहते हैं कि मूर्ख व्यक्ति गुरु की महिमा को नहीं समझ पाते हैं। ऐसे में यदि ईश्वर आपसे रूठ गया तो गुरु के बिना उन्हें मानना संभव नहीं है लेकिन यदि आपका गुरु आपसे रूठ जाए तो उसे मानने का कोई दूसरा उपाय नहीं है।

34. कबीर सुता क्या करे, जागी न जपे मुरारी।
एक दिन तू भी सोवेगा, लंबे पांव पसारी।।

भावार्थ – सांसारिक मोह माया में लिप्त मनुष्य हमेशा सोया ही रहता है। यदि समय रहते वह नहीं चेता और उसने ईश्वर की भक्ति नहीं की तो एक दिन वह लंबे पैर पसार कर हमेशा के लिए सो जाएगा।

35. नहीं शीतल है चंद्रमा, हिम नहीं शीतल होय।
कबीर शीतल संत जन, नाम सनेही होय।।

भावार्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि इस संसार में जितना शीतल सज्जन व्यक्ति है उतना शीतल ना तो चंद्रमा है और ना ही हिम क्योंकि सज्जन पुरुष सभी से स्नेह करने वाले होते हैं।

36. पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।।

भावार्थ – कबीर दास कहते हैं कि मनुष्य अच्छी से अच्छी शिक्षा ग्रहण करता है परन्तु वह पंडित नहीं कहलाता है। लेकिन जो व्यक्ति प्रेम के ढाई अक्षर पढ़ करता है वही विद्वान कहलाता है।

37. राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय।
जो सुख साधू संग में, सो बैकुंठ न होय।।

भावार्थ – जब राम दूतों का बुलावा आता है तब हर किसी को इस संसार से जाना पड़ता है। ऐसे में धरती पर साधु संत की संगति से जिस आंनद की प्राप्ति होती है उतना आनंद तो स्वर्ग में भी नहीं मिलता है।

38. शीलवंत सबसे बड़ा सब रतनन की खान।
तीन लोक की संपदा, रही शील में आन।।

भावार्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि इस संसार में मनुष्य के पास अगर शीतल और शांति है तो समझिए उनके पास सबसे अनमोल रत्न है क्योंकि जिसके पास शीतलता मौजूद है। उनको तीनों लोक के बराबर संपदा वाला माना जाता है।

39. साईं इतना दीजिए, जामे कुटुंब समाए। 
मैं भी भूखा न रहूं, साधू न भूखा जाए।।

भावार्थ – हे ईश्वर मुझे आपसे अधिक धन और संपत्ति पाने की लालसा नहीं है। बल्कि बस तुम इतना दे देना कि ना तो मैं भूखा मरने पाऊं और ना ही मेरे परिवारवाले। हम सब पेट भरकर खा सके बस इतना जरूर दे देना।

40. माखी गुड में गडी रहे, पंख रहे लिपटाए।
हाथ मेल और सिर धूनें, लालच बुरी बलाय।।

भावार्थ – जिस प्रकार से गुड़ से चिपकने के बाद मक्खी लाख कोशिशों के बाद भी उससे अलग होकर उड़ नहीं पाती है। ठीक उसी प्रकार से जो व्यक्ति सांसारिक मोह माया में जकड़ा हुआ है वह उससे जीवन के अंतिम दिनों में निकल पाएगा और उसे तब पछताना भी पड़ेगा।

41. ज्ञान रतन का जतन कर, माटी का संसार।
हाय कबीरा फिर गया, फीका है संसार।।

भावार्थ – समस्त संसार तो मिट्ठी से बना है एक दिन सब कुछ समाप्त हो जाना है। यदि मनुष्य ने अभी से ज्ञान प्राप्ति के लिए प्रयास नहीं किया तो आगे मरने के बाद जीवन और जीवन के बाद मृत्यु यही क्रम दोहराता रहेगा।

42. कुटिल वचन सबसे बुरा, जा से होत न चार।
साधू वचन जल रूप है, बरसे अमृत धार।।

भावार्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि जो व्यक्ति कड़वे वचन बोलता है, वह किसी भी प्रकार की समस्या का हल नहीं हो सकता है। ठीक दूसरी ओर, एक सज्जन व्यक्ति जब अपने विचार रखता है तो वह अमृत के समान फलदाई होते हैं।

43. आए है तो जाएंगे, राजा रंक फकीर।
इक सिंहासन चढ़ी चले, इक बंधे जंजीर।।

भावार्थ – इस संसार में जिसने जन्म लिया है उसे एक दिन यह संसार छोड़कर जाना पड़ता है। फिर चाहे वह राजा हो या भिखारी। सबको यमराज अपनी जंजीर में बांधकर मृत्युलोक की ओर ले जाते हैं।

44. ऊंचे कुल का जनमिया, करनी ऊंची न होय।
सुवर्ण कलश सुरा भरा, साधू निन्दा होय।।

भावार्थ – जिस व्यक्ति ने जन्म तो ऊंचे कुल में लिया है लेकिन उसके कर्म उच्च नहीं है तो वह उसी प्रकार से निंदा का पात्र है, जिस प्रकार से सोने से भरे लोटे में यदि जहर हो तो वह फलदाई नहीं होता है।

45. रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय।
हीरा जन्म अमोल सा, कोड़ी बदले जाय।।

भावार्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि यदि अपने अपनी रातें सोते हुए ही बीता दी और दिन खाते खाते निकाल दिया तो समझिए आप अपना अनमोल जीवन कोड़ियों में परिवर्तित होता जा रहा है।

46. कामी क्रोधी लालची, इनसे भक्ति न होय।
भक्ति करे कोई सुरमा, जाती बरन कुल खोए।।

भावार्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि जो व्यक्ति काम, क्रोध, लोभ, मोह और अंहकार के वश में है वह कभी ईश्वर की भक्ति नहीं कर सकता है। दूसरा जिसने इन सबका त्याग कर दिया है वहीं ईश्वर की भक्ति करने वाला सुरमा कहलाता है।

47. कागा का को धन हरे, कोयल का को देय।
मीठे वचन सुना के, जग अपना कर लेय।।

भावार्थ – कौआ किसी का धन चोरी नहीं करता है फिर भी वह किसी को पसंद नहीं आता है। जबकि कोयल भी किसी को धन देकर नहीं जाती है लेकिन फिर भी वह सबको भाती है। इस प्रकार मीठी बोली सबके मन को हर लेती है।

48. लुट सके तो लुट ले, हरी नाम की लुट।
अंत समय पछताएगा, जब प्राण जाएंगे छूट।।

भावार्थ – कबीर दास कहते हैं कि सम्पूर्ण संसार में ईश्वर का वास है लेकिन एक बार यदि आपका जीवन समाप्त हो गया तो राम की भक्ति करना असम्भव है इसलिए समय रहते राम का नाम लेना आवश्यक है।

49. तिनका कबहुं ना निंदये, जो पांव तले होय।
कबहुं उड़ आंखों पड़े, पीर घानेरी होय।।

भावार्थ – जब कोई तिनका जमीन पर पड़ा होता है तो हम उसे पैरों से कुचल कर चले जाते हैं। तो वहीं यदि वह तिनका हमारी आंखों में चला जाए तो बहुत दर्द करता है। इसलिए हमें कभी भी किसी कमजोर और गरीब की निंदा नहीं करनी चाहिए।

50. धीरे धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।
माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय।।

भावार्थ – इस संसार में सब कुछ नियत समय पर ही संभव है। जैसे माली पूरे साल बगीचे को सींचता है लेकिन उसे फूल की प्राप्ति वसंत ऋतु में ही होती है। ठीक उसी प्रकार से व्यक्ति को भी जीवन में सब्र का परिचय देना चाहिए चाहे सफ़लता मिलने में समय कितना ही क्यों ना लग जाए।

कबीरदास जी का काव्यगत सौंदर्य

कबीरदास जी ने अपनी रचनाओं में विशेषकर खड़ीबोली और ब्रजभाषा का प्रयोग किया है। साथ ही इनकी रचनाओं में भक्ति और प्रेम रस देखने को मिलता है और सुबोध शैली का बड़ा ही मनोहारी चित्रण किया गया है। कबीरदास के काव्य को लेकर स्वयं आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इन्हें भाषा का जबर्दस्त डिक्टेटर बताया है।

इस प्रकार कबीरदास जी ने अपने दोहों के माध्यम से समाज में समानता, एकरूपता और शीतलता का पाठ पढ़ाया है। इनके द्वारा लिखे गए काव्य से समाज में शांति और भाईचारे का संदेश पहुंचता है।

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अंशिका जौहरी

मेरा नाम अंशिका जौहरी है और मैंने पत्रकारिता में स्नातकोत्तर किया है। मुझे सामाजिक चेतना से जुड़े मुद्दों पर बेबाकी से लिखना और बोलना पसंद है।

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