Rahim Ke Dohe with Meaning in Hindi
अकबर के नव रत्नों में शामिल अब्दुल रहीम खानखाना (1556 – 1627) मुस्लिम होने के बाद भी भगवान कृष्ण के परम भक्त थे। इनको तुर्की, अरबी और फारसी आदि कई भाषाओं का अच्छा ज्ञान प्राप्त था। इन्होंने अपनी काव्य रचनाओं में विशेषकर अवधी, ब्रजभाषा और खड़ी बोली का प्रयोग किया है।
अब्दुल रहीम खानेखाना अकबर के दरबार में एक कवि, सेनापति, दानवीर, कलाप्रेमी और एक कुशल विद्वान थे। रहीम के दोहों [Rahim ke Dohe] में नीति, भक्ति, प्रेम और श्रृंगार इत्यादि की जुगलबंदी देखने को मिलती है।
संदर्भ – प्रस्तुत दोहे [Rahim ke Dohe] रहीम दास जी द्वारा रचित दोहावली, रहीम सतसई और नीति भक्ति के दोहों से लिए गए हैं।
Rahim ke Dohe in Hindi
1. रहिमन धागा प्रेम का, मत तोरो चटकाय।
टूटे पे फिर ना जुरे, जुरे गांठ परी जाय।।

भावार्थ – रहीमदास जी कहते हैं कि प्रेम का धागा बहुत कमजोर होता है। एक बार यदि वह टूट जाए तो फिर उसको जोड़ना मुश्किल होता है और यदि प्रेम का धागा जुड़ भी जाए तो उसमें गांठ पड़ जाती है।
2. जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करी सकत कुसंग।
चन्दन विष व्यापे नहीं, लिपटे रहत भुजंग।।
भावार्थ – रहीमदास जी कहते हैं कि चंदन के पेड़ पर सांप के लिपटे रहने के बावजूद उसकी खुशबू पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। ठीक उसी प्रकार से, सज्जन व्यक्तियों पर बुरी संगति का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।
3. वृक्ष कबहुं नहीं फल भखैं, नदी न संचै नीर।
परमारथ के कारने, साधुन धरा सरीर।।
भावार्थ – रहीमदास जी कहते हैं कि पेड़ कभी अपने फल स्वयं नहीं खाते हैं और नदी कभी अपना जल स्वयं नहीं संचित करती है। ठीक उसी प्रकार से, परोपकारी व्यक्ति इस धरती पर दूसरों का भला करने के लिए जन्म लेते हैं।
4. रूठे सुजन मनाइए, जो रूठे सौ बार।
रहिमन फिरि फिरि पोइए, टूटे मुक्ता हार।।
भावार्थ – रहीमदास जी कहते हैं कि मोती की माला टूट जाने के बाद भी उसको दुबारा पिरो लिया जाता है क्योंकि वह सबको पसंद आती है। उसी प्रकार से यदि कोई सज्जन व्यक्ति आपसे रूठे तो उसे सौ बार मना लेना चाहिए।
5. खीरा सिर ते काटि के, मलियत लौंन लगाय।
रहिमन करुए मुखन को, चाहिए यही सजाय।।
भावार्थ – रहीमदास जी कहते हैं कि जिस प्रकार से खीरे के कड़वेपन को दूर करने के लिए उसके ऊपरी सिरे पर नमक लगाया जाता है। वैसे ही कड़वा बोलने वाले व्यक्तियों को भी उपयुक्त तरह से ही सजा देनी चाहिए।
6. दोनों रहिमन एक से, जों लों बोलत नाहिं।
जान परत हैं काक पिक, रितु बसंत के माहिं।।
भावार्थ – कौआ और कोयल जब तक बोलते नहीं है तब तक उनकी पहचान करना मुश्किल है लेकिन बसंत ऋतु के आते ही कोयल की मधुर आवाज से इनके बीच का अंतर समाप्त हो जाता है।
7. वे रहीम नर धन्य हैं, पर उपकारी अंग।
बांटन वारे को लगे, ज्यों मेंहदी के रंग।।
भावार्थ – रहीमदास जी कहते हैं कि वह लोग इस धरती पर सबसे मूल्यवान होते हैं जिनका सारा जीवन परोपकार के कार्यों में लगता है। उनका जीवन ठीक उसी प्रकार से शोभायमान होता है जैसे किसी दूसरे के हाथों में मेहंदी लगाते समय अपने हाथों में भी मेहंदी का रंग चढ़ जाया करता है।
8. रहिमन चुप हो बैठिये, देखि दिनन के फेर।
जब नीके दिन आइहैं, बनत न लगिहैं देर।।
भावार्थ – रहीमदास जी कहते हैं कि व्यक्ति को सदैव अच्छे समय का इंतजार करना चाहिए क्योंकि जब समय ठीक होता है तब उसके सारे काम स्वत: ही पूरे हो जाते हैं लेकिन जब व्यक्ति का समय खराब हो तो उसे मौन धारण कर लेना चाहिए।
9. निज कर क्रिया रहीम कहि सीधी भावी के हाथ।
पांसे अपने हाथ में दांव न अपने हाथ।।
भावार्थ – रहीमदास जी कहते हैं कि व्यक्ति के हाथ में केवल कर्म करना लिखा है। उसे सिद्धि की प्राप्ति केवल भाग्य के आधार पर ही होती है। जैसे चौपड़ खेलते समय पासे तो व्यक्ति के हाथ में होते हैं लेकिन उसके दांव से वह सदैव अनभिज्ञ रहता है।
10. रहिमन मनहि लगाईं कै, देख लेहूं किन कोय।
नर को बस करिबो कहा, नारायण बस होय।।
भावार्थ – यदि व्यक्ति किसी कार्य को एकाग्रचित होकर करता है तो उसे जरूर सफ़लता प्राप्त होती है। वैसे ही व्यक्ति यदि पूरे मन से ईश्वर को याद करता है तो वह ईश्वर को वश में कर लेता है।
11. रहिमन विपदा हू भली, जो थोरे दिन होय।
हित अन हित या जगत में, जान परत सब कोय।।
भावार्थ – रहीमदास जी कहते हैं कि विपत्ति के समय ही आपके अपनों का पता चलता है कि सम्पूर्ण संसार में आपका हितैषी कौन है और दुश्मन कौन है।
12. बिगड़ी बात बने नहीं, लाख करो किन कोय।
रहिमन फाटे दूध को, मथे न माखन होय।।
भावार्थ – रहीमदास जी कहते हैं कि व्यक्ति को हर परिस्थिति में बुद्धिमानी से कार्य करना चाहिए। अन्यथा कुछ भी ग़लत हो जाने पर उसे दुबारा ठीक करना सही नहीं होता है। जैसे दूध के एक बार खराब हो जाने पर ना तो उससे मक्खन ही बन पाता है और ना ही कोई अन्य खाद्य पदार्थ।
13. रहिमन नीर पखान, बूडे़ पै सीझै नहीं।
तैसे मूरख ज्ञान, बूझै पै सूझै नहीं।।
भावार्थ – रहीमदास जी कहते हैं कि पत्थर जब पानी में पड़ा होता है तब वह अपनी सख्ती छोड़ देता है, ठीक वैसे ही मूर्ख व्यक्ति को भी ज्ञान देने पर उसकी समझ विकसित होने लगती है।
14. राम न जाते हरिन संग से न रावण साथ।
जो रहीम भावी कतहुं होत आपने हाथ।।
भावार्थ – जीवन में घटित होने वाली समस्त बातों पर हमारा बस नहीं होता है क्योंकि होनी को कोई नहीं टाल सकता है। यदि ऐसा होता तो जब राम सोने के हिरण के पीछे जंगल की ओर गए और लंकापति नरेश माता सीता का हरण करके ले गया। ऐसा कदाचित संभव नहीं होता।
15. एकै साधे सब है, सब साधे सब जाय।
रहिमन मूलहिं सिचिंबो, फुलै फुलै अघाय।।

भावार्थ – रहीमदास जी कहते हैं कि व्यक्ति को एक समय में ही एक ही कार्य करना चाहिए क्योंकि यदि आप एक साथ कई सारे कार्य करने की कोशिश करेंगे तो आप कभी सफल नहीं हो पाएंगे। यह नियम कुछ उसी प्रकार से है कि जब तक किसी पौधे की जड़ में पानी नहीं डालेंगे तब तक आपको उससे फूल या फल की प्राप्ति नहीं होगी।
16. समय पाए फल होत है, समय पाए झरी जात।
सदा रहे नहिं एक सी, का रहीम पछितात।।
भावार्थ – रहीमदास जी कहते हैं कि व्यक्ति को बुरे समय में शोक नहीं मानना चाहिए क्योंकि जीवन में कभी कोई अवस्था एक जैसी नहीं रहती है। जैसे पेड़ पर एक अवधि में फल लदते है और दूसरे वक्त उनके झड़ने का समय आ जाता है।
17. रहिमन देखि बड़ेन को, लघु न दीजिए डारि।
जहां काम आवे सुई, कहा करे तलवारि।।
भावार्थ – रहीमदास जी कहते हैं कि संसार में मौजूद छोटी और हर बड़ी वस्तु का महत्व निहित है इसलिए हमें कभी किसी की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। जहां सुई अपना काम करती है वहां तलवार की आवश्यकता नहीं होती है।
18. रहिमन निज मन की व्यथा, मन में राखो गोय।
सुनि इठलैंहैं लोग सब, बाटि न लैहै कोय।।
भावार्थ – रहीमदास जी कहते हैं कि व्यक्ति को अपने दुख को भीतर ही रखना चाहिए क्योंकि एक बार उसने दुनिया वालों को अपना दुखड़ा सुनाया तो उसका मजाक बनना निश्चित है।
19. छिमा बड़न को चाहिए, छोटन को उतपात।
कह रहीम हरि का घट्यौ, जो भृगु मारी लात।।
भावार्थ – छोटों के उत्पात को माफ कर देने में ही बड़ों का बड़प्पन झलकता है। अपने से छोटे को माफ कर देने से बड़े व्यक्ति का कुछ नहीं घटता है। जैसे भृगु ने जब भगवान विष्णु को लात मारी तब भगवान विष्णु ने बड़प्पन दिखाते हुए भृगु से कुछ नहीं कहा।
20. जैसी परे सो सहि रहे, कहि रहीम यह देह।
धरती ही पर परत है, सीत घाम औ मेह।।
भावार्थ – रहीमदास जी कहते हैं कि प्रकृति जैसे धरती, सर्दी और गर्मी को सहन करती है। वैसे ही व्यक्ति को भी जीवन में दुख और दुख सहन करना आना चाहिए।
21. पावस देखि रहीम मन, कोइल साधे मौन।
अब दादुर वक्ता भए, हमको पूछे कौन।।
भावार्थ – रहीमदास जी कहते हैं कि वर्षा ऋतु आते ही मेढ़क बोलने लग जाते हैं। ऐसे में कोयल की कोई नहीं सुनता है। ठीक उसी प्रकार से गुणवान व्यक्ति को वहां शांत हो जाना चाहिए जहां उसके गुणों की अवहेलना होती है।
22. बिगरी बात बने नहीं, लाख करो किन कोय।
रहिमन फाटे दूध को, मथे न माखन होय।।

भावार्थ – रहीमदास जी कहते हैं कि व्यक्ति को सदैव सोच समझकर दूसरों के साथ व्यवहार करना चाहिए। अन्यथा एक बार बात बिगड़ने के बाद उसे संभलना मुश्किल होता है ठीक वैसे ही जैसे दूध के फटने के बाद उसे मथ कर मक्खन नहीं निकाला जा सकता है।
23. रहिमन अंसुवा नयन ढरि, जिय दुःख प्रगट करेइ।
जाहि निकारौ गेह ते, कस न भेद कहि देइ।।
भावार्थ – रहीमदास जी कहते हैं कि जिस प्रकार से आंख से निकला हुआ आंसू बहकर मन की दुविधा को सबके सामने प्रकट कर देता है। वैसे ही जब किसी व्यक्ति को घर से बेघर कर दिया जाता है तो वह घर का भेद बाहर जाकर कह देता है।
24. मन मोटी अरु दूध रस, इनकी सहज सुभाय।
फट जाए तो न मिले, कोटिन करो उपाय।।
भावार्थ – रहीमदास जी कहते हैं कि मन, दूध, रस, मोती, फूल इत्यादि जब तक सामान्य रूप में होते हैं तब तक वह अच्छे शोभित होते हैं। परन्तु यदि वह अपने रूप से हट जाएं तो दुबारा कभी पुरानी अवस्था में नहीं आ पाते हैं।
25. जाल परे जल जात बहि, तजि मीनन को मोह।
रहिमन मछरी नीर को तऊ न छांड़ति छोह।।
भावार्थ – रहीमदास जी कहते हैं कि इस संसार में मछली और जल के बीच प्रेम में त्याग की भावना होती है। जब मछुआरा मछली को पकड़ने के लिए जल में जाल फेंकता है तो जल से अलग होने के बाद मछली अपने प्राण त्याग देती है।
26. विपति भये धन ना रहै रहै जो लाख करोर।
नभ तारे छिपि जात हैं ज्यों रहीम ये भोर।।
भावार्थ – रात्रि के दौरान आसमान में अनगिनत तारे जगमगाते हैं लेकिन सुबह होते ही वह सभी गायब हो जाते हैं। ठीक उसी प्रकार से विपत्तियों के समय चाहे आपके पास करोड़ों रूपए ही क्यों ना हो वह सब खत्म हो जाते हैं।
27. ओछो को सतसंग रहिमन तजहु अंगार ज्यों।
तातो जारै अंग सीरै पै कारौ लगै।।
भावार्थ – रहीमदास जी कहते हैं कि सज्जन पुरुषों को छोटी मानसिकता वाले लोगों से दूरी बना लेनी चाहिए क्योंकि अंगार जब गर्म रहता है वह जब शरीर जलाता है और जब ठन्डा होता है तब वह कोयला बनकर शरीर को काला कर देता है।
28. रहिमन ओछे नरन सो, बैर भली न प्रीत।
काटे चाटे स्वान के, दोउ भांती विपरित।।
भावार्थ – रहीमदास जी कहते हैं कि नीच व्यक्ति से ना दोस्ती अच्छी और ना दुश्मनी। ठीक वैसे ही जैसे कुत्ते का काटना और चाटना दोनों ही हानिकारक है।
29. लोहे की न लोहार की, रहिमन कही विचार जा।
हनि मारे सीस पै, ताही की तलवार।।
भावार्थ – रहीमदास जी कहते हैं कि युद्ध में प्रयोग की जाने वाली तलवार ना लोहे की कही जाएगी और ना लोहार की। तलवार उस वीर योद्धा की कहीं जाएगी जो युद्ध भूमि में शत्रु के धड़ पर वार करती है।
30. तासों ही कछु पाइए, कीजे जाकी आस।
रीते सरवर पर गए, कैसे बुझे पियास।।
भावार्थ – रहीमदास जी कहते हैं कि व्यक्ति को उसी से पाने की आशा रखनी चाहिए जो देने में सक्षम हो क्योंकि सूखे तालाब के पास जाने से व्यक्ति की प्यास नहीं बुझती है।
31. थोथे बादर कार के, ज्यों रहीम घहरात।
धनी पुरुष निर्धन भये, करैं पाछिली बात।।
भावार्थ – रहीमदास जी कहते हैं कि अश्विन के महीने में आसमान में दिखने वाले बादल केवल गड़गड़ाहट करते हैं ठीक वैसे ही जब कोई अमीर व्यक्ति गरीब हो जाता है तो वह सिर्फ बड़ी बड़ी बातें ही करता है।
32. संपत्ति भरम गंवाई के हाथ रहत कछु नाहिं।
ज्यों रहीम ससि रहत है दिवस अकासहि माहि।।
भावार्थ – रहीमदास जी कहते हैं कि जिस प्रकार से चांद के दिन में मौजूद होने पर भी वह आंखों से आभाहीन रहता है ठीक उसी प्रकार से बुरी लत के चलते व्यक्ति अपना सब खो देता है और दुनिया से ओझल हो जाता है।
33. साधु सराहै साधुता, जाती जोखिता जान।
रहिमन सांचे सुर को बैरी कराइ बखान।।
भावार्थ – रहीमदास जी कहते हैं कि साधु लोग सज्जन व्यक्ति की तारीफ करते हैं और योगी व्यक्ति योगी की बढ़ाई करता है लेकिन सच्चे वीर की तारीफ उसके शत्रु भी करते हैं।
34. वरू रहीम कानन भल्यो वास करिय फल भोग।
बंधू मध्य धनहीन हृ, बसिबो उचित न योग।।
भावार्थ – रहीमदास जी कहते हैं कि निर्धन बनकर बंधुओं के समीप रहने से बेहतर है कि वन में जाकर रहा जाए और फलों का सेवन किया जाए।
35. रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून।
पानी गये न ऊबरे, मोती, मानुष, चून।।
भावार्थ – रहीमदास जी कहते हैं कि पानी के बिना आटे में नम्रता नहीं आती है ठीक उसी प्रकार से मोती में पानी के बिना आभा का विस्तार नहीं होता है। इसलिए मनुष्य का व्यवहार भी पानी की भांति विनम्र होना चाहिए अन्यथा उसका मूल्य कम हो जाता है।
36. रहिमन रीति सराहिए, जो घट गुन सम होय।
भीति आप पै डारि के, सबै पियावै तोय।।
भावार्थ – रहीमदास जी कहते हैं कि घड़ा और रस्सी बिना स्वयं की परवाह किए कुएं में प्रवेश करते हैं और सबको पानी पिलाते हैं। उन्हें ना तो टूटने की परवाह होती है और ना फूटने की। इस प्रकार घड़े और रस्सी की रीति इस संसार में सबसे अनोखी है।
37. जो बडे़न को लघु कहें, नहीं रहीम घटी जाहिं।
गिरधर मुरलीधर कहें, कछु दुःख मानत नाहिं।।
भावार्थ – रहीमदास जी कहते हैं कि जिस प्रकार से भगवान कृष्ण को मुरलीधर कहने से उनकी महिमा कम नहीं होती है ठीक उसी प्रकार से बड़े को छोटा कह देने से उसका बड़प्पन कम नहीं होता है।
38. अब रहीम मुसकिल परी गाढ़े दोउ काम।
सांचे से तो जग नहीं झूठे मिले न राम।।

भावार्थ – रहीमदास जी कहते हैं कि इस संसार में भौतिकता और अध्यात्म की प्राप्ति एक साथ नहीं हो सकती क्योंकि सच्चाई के मार्ग पर चलकर व्यक्ति को भौतिक सुख की प्राप्ति नहीं होती और गलत रास्ते पर चलकर ईश्वर की।
39. मांगे मुकरि न को गयो केहि न त्यागियो साथ।
मांगत आगे सुख लहयो ते रहीम रघुनाथ।।
भावार्थ – रहीमदास जी कहते हैं कि इस संसार में यदि आप किसी व्यक्ति से कुछ मांगते हैं तो वह सदैव आपसे मुंह मोड़ लेंगे। लेकिन एक ईश्वर ही हैं जो आपके कुछ मांगने पर आपसे निकटता बना लेता है।
40. जेहि अंचल दीपक दूरयो हन्यो सो ताही गात।
रहिमन असमय के परे मित्र शत्रु है जात।।
भावार्थ – रहीमदास जी कहते हैं कि जिस प्रकार से हवा के तेज झोकें में महिला अपने आंचल से दीये की लौ को बुझने नहीं देती है लेकिन रात्रि के समय वह अपने आंचल से ही लौ बुझा देती है। ठीक उसी प्रकार से वक्त जब बुरा होता है तो आपके मित्र भी आपके शत्रु हो जाया करते हैं।
41. रहिमन कुटिल कुठार ज्यों करि डारत द्वै टूक।
चतुरन को कसकत रहे समय चूक की हूक।।
भावार्थ – रहीमदास जी कहते हैं कि जिस प्रकार से कुल्हाड़ी लकड़ी को दो भागों में बांट देती है ठीक उसी प्रकार से मनुष्य के मुख से निकले कड़वे वचन भी आपस में दूरियां पैदा कर देते हैं। ऐसे में बुद्धिमान व्यक्ति किसी दूसरे को कड़वे वचन बोलने की जगह जवाब को आगे परिस्थिति पर छोड़ देता है।
42. धन दारा अरू सुतन सों लग्यों है नित चित्त।
नहि रहीम कोउ लरवयो गाढे दिन को मित्त।।
भावार्थ – रहीमदास जी कहते हैं कि व्यक्ति को जीवन में समय केवल धन, संपत्ति और संतान के बारे में सोचकर ही नहीं बिता देना चाहिए। अपितु व्यक्ति को थोड़ा समय ईश्वर में लगाना चाहिए, वहीं आपदा के समय व्यक्ति की मदद करते हैं।
43. पुरूस पूज़ै देबरा तिय पूज़ै रघुनाथ।
कहि रहीम दोउन बने पड़ो बैल के साथ।।
भावार्थ – रहीमदास जी कहते हैं कि गृहस्थ जीवन की गाड़ी पटरी पर एक साथ तभी चल पाती है जब पति पत्नी के व्यवहार में समानता हो। वरन् पति देवी देवताओं और पत्नी रघुनाथ को पूजती है तो इन दोनों का मेल कैसे संभव है।
44. आदर घटे नरेस ढिग बसे रहे कछु नाहि।
जो रहीम कोरिन मिले धिक जीवन जग माहि।।
भावार्थ – रहीमदास जी कहते हैं कि व्यक्ति को जहां सम्मान की प्राप्ति ना हो, व्यक्ति को वहां नहीं ठहरना चाहिए। फिर चाहे राजा के दरबार में आपको करोड़ों रुपए की प्राप्ति ही क्यों ना हो लेकिन यदि वहां आपको आदर ना मिले। तब वहां मिले करोड़ों रुपए भी व्यर्थ हैं।
45. विरह रूप धन तम भये अवधि आस इधोत।
ज्यों रहीम भादों निसा चमकि जात खघोत।।
भावार्थ – रहीमदास जी कहते हैं कि प्रत्येक रात्रि में अंधकार के चलते व्यक्ति की पीड़ा और अधिक बढ़ जाती है लेकिन भादो मास में जुगनू के चलते रात्रि के अंधरे में भी रोशनी का संचार होने लगता है।
46. समय लाभ सम लाभ नहि समय चूक सम चूक।
चतुरन चित रहिमन लगी समय चूक की हूक।।
भावार्थ – रहीमदास जी कहते हैं कि व्यक्ति को समय की कीमत समझनी होगी क्योंकि समय के बीतते ही व्यक्ति के हाथ से अवसर भी छूट जाते हैं। इस दुनिया में अवसरों की कमी नहीं है लेकिन जो व्यक्ति समय का सदुपयोग करता है, सफलता उसे ही प्राप्त होती है।
47. धनि रहीम जल पंक को लघु जिय पिअत अघाय।
उदधि बड़ाई कौन हे, जगत पिआसो जाय।।
भावार्थ – रहीमदास जी कहते हैं कि कीचड़ का पानी पीकर छोटे छोटे जीव जंतुओं का भला हो जाता है। ऐसे में विशाल समुद्र का होना नाम मात्र है। ठीक उसी प्रकार से, जब कोई गरीब व्यक्ति किसी दूसरे की सहायता करता है तो वह उनकी तुलना में श्रेष्ठ होता है। जिनके पास सब कुछ होते हुए भी वह किसी की मदद नहीं करते हैं।
48. माह मास लहि टेसुआ मीन परे थल और।
त्यों रहीम जग जानिए, छुटे आपुने ठौर।।
भावार्थ – रहीमदास जी कहते हैं कि माघ मास के आते ही पलास का पेड़ और पानी से बाहर निकलते ही मछली की स्थिति खराब हो जाती है। ठीक वैसे ही संसार में जब किसी वस्तु की जगह बदलती है तो उसकी परिस्थिति में भी परिवर्तन आ जाता है।
49. मथत मथत माखन रहे, दही मही बिलगाय।
रहिमन सोई मीत है, भीर परे ठहराय।।
भावार्थ – रहीमदास जी कहते हैं कि जिस प्रकार से मक्खन मथते मथते मट्ठा दही का साथ छोड़ देता है। ठीक उसी प्रकार से सच्चा मित्र ही आपदा के समय साथ देता है। अन्यथा अधिकतर मित्र विपत्ति के समय साथ छोड़ देते हैं।
50. ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोय।
औरन को सीतल करै, आपहु सीतल होय।।

भावार्थ – रहीमदास जी कहते हैं कि व्यक्ति को सदैव दूसरों के साथ अच्छा व्यवहार करना चाहिए। जिससे आपको भी खुशी हो और सामने वाला भी आपके साथ सदैव अच्छा व्यवहार ही करे।
रहीम दास जी के दोहों का काव्यगत सौंदर्य – Rahim Das Ji ke Dohe ka kavyagat Saundarya
रहीमदास जी की रचनाओं में तदभव शब्दों का प्रयोग किया गया है। साथ ही इनके दोहों में सरल शैली देखने को मिलती है। रहीमदास जी की काव्य रचनाओं में संयोग और वियोग श्रृंगार दोनों का ही प्रयोग हुआ हैं और इनकी रचनाओं में रूपक, श्लेष, उत्प्रेक्षा और यमक अलंकारों आदि का समावेश मिलता है।
इसके साथ ही Rahim ke Dohe समाप्त होते हैं। आशा करते हैं कि ये आपको पसंद आए होंगे।
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