नेत्रहीन महाराज धृतराष्ट्र की कहानी
महाभारत पात्रों की श्रृंखला में आज हम हस्तिनापुर के महाराज धृतराष्ट्र के बारे में जानेंगे। महाराज धृतराष्ट्र जन्मांध अंधे थे, इसलिए कुरु भाइयों में जयेष्ठ होने के बाद भी इन्हें आरंभ में हस्तिनापुर की गद्दी नहीं मिली। जिसकी कुंठा में इन्होंने जीवनपर्यंत नीति विरुद्ध कार्यों को अंजाम दिया।
ऐसे में हम कह सकते हैं कि महाराज धृतराष्ट्र की स्वार्थपरकता भी महाभारत युद्ध का एक प्रमुख कारण थी। तो चलिए जानते है महाराज धृतराष्ट्र के जीवन से जुड़ी अहम जानकारियां के बारे में।
धृतराष्ट्र का संक्षिप्त परिचय
नाम | धृतराष्ट्र |
जन्म स्थान | हस्तिनापुर |
पिता का नाम | महर्षि वेदव्यास |
माता का नाम | रानी अंबिका |
व्यक्तित्व | जनमांध अंधे |
उपाधि | महाराज पांडु के बाद हस्तिनापुर नरेश |
निपुणता | वेदों और शास्त्रों का उचित ज्ञान |
गुरु | भीष्म पितामह और कृपाचार्य |
बुराई | पुत्र और सत्ता मोह |
वैवाहिक स्थिति | विवाहित |
पत्नी का नाम | गांधारी |
संतान | दुर्योधन, दुशासन समेत 100 पुत्र, 1 पुत्री दुशाला, 1 नाजायज पुत्र युयुत्सु |
पिछला जन्म | एक तानाशाही राजा |
सारथी | संजय |
मृत्यु | जंगल में व्यतीत किया अंतिम समय |
महाराज धृतराष्ट्र का जन्म – Dhritarashtra’s Birth
जैसा कि हम आपको पिछले लेख में बता चुके हैं कि महाराज शांतनु की मृत्यु के बाद उनके बेटों (चित्रांगद और विचित्रीविरी) को हस्तिनापुर का उत्तराधिकारी घोषित किया गया था। जिनमें से युवराज विचित्रवीर्य की दो पत्नियां थीं। जिनका नाम अंबिका और अंबालिका था।
युवराज विचित्रवीर्य की मृत्यु के पश्चात् उनकी माता सत्यवती ने अपनी दोनों वधुओं को अपने पुत्र महर्षि वेदव्यास के पास भेजा। महर्षि वेदव्यास ने अपनी ध्यान और ज्ञान शक्ति से दोनों रानियों को गर्भवती कर दिया।
जिनमें से रानी अंबिका ने महाराज धृतराष्ट्र को और रानी अंबालिका ने महाराज पाण्डु को जन्म दिया था। कहते है कि महर्षि वेदव्यास को देखते ही रानी अंबिका ने अपनी आंखें बंद कर ली थी। जिस कारण महाराज धृतराष्ट्र अंधे पैदा हुए थे।
यही वजह थी कि आगे चलकर हस्तिनापुर का उत्तराधिकारी महाराज पाण्डु को बनाया गया। क्योंकि एक नेत्रहीन राजा किसी भी राज्य का उत्तराधिकारी घोषित नहीं किया जा सकता था। परन्तु महाराज पांडु की मृत्यु हो जाने के बाद महाराज धृतराष्ट्र को हस्तिनापुर का सिंहासन मिल गया।
तत्पश्चात् महाराज धृतराष्ट्र ने हस्तिनापुर की गद्दी पर बैठकर कई प्रकार के अनुचित कार्यों को अंजाम दिया। जिसके परिणामस्वरूप भीष्म पितामह, गुरू द्रोणाचार्य, कुलगुरू कृपाचार्य औऱ यहां तक कि महामंत्री विदुर भी राजा धृतराष्ट्र के विरूद्ध कभी नहीं जा सके।
हालांकि भीष्म पितामह से अस्त्र शस्त्र का ज्ञान लेने पर महाराज धृतराष्ट्र की गिनती आज भी महाभारत काल के प्रमुख योद्धाओं में होती है। इसके अलावा महाराज धृतराष्ट्र के व्यक्तित्व में एक अलग ही प्रकार की प्रतिभा मौजूद थी। वह व्यक्ति के पद चिन्हों से उक्त व्यक्ति के बारे में पता लगा लेते थे।
महाराज धृतराष्ट्र के व्यवहार में एक आकर्षक बात यह भी थी कि वह अपनी शत्रुता या क्रोध का परिचय अपने मुख मंडल से कभी नहीं देते थे। वह सदैव ही ऐसा दिखाने की कोशिश किया करते थे कि वह पांडव पुत्रों के साथ किसी भी प्रकार का अन्याय नहीं कर सकते हैं।
लेकिन पुत्र मोह में वह और अधिक अंधे हो गए थे। जिसका परिणाम आगे चलकर हस्तिनापुर को महाभारत का युद्ध के तौर पर मिला।
धृतराष्ट्र का नेत्रहीन होना था पिछले जन्म का श्राप – Dhritarashtra’s Past Life
धार्मिक स्रोतों के अनुसार, महाराज धृतराष्ट्र अपने पूर्व जन्म में एक क्रूर राजा थे। वह अपने सुख के आगे सबके सुखों की बलि दे दिया करते थे। एक बार की बात है कि जब महाराज धृतराष्ट्र नगर भ्रमण पर जा रहे थे। कि तभी तालाब के पास एक हंस का जोड़ा विचरण कर रहा था।
जिसे देखते ही महाराज धृतराष्ट्र ने दोनों हंसों की आंखों को फोड़ने का आदेश दे दिया। साथ ही हंसों की संतानों को मरवा दिया। कहते हैं उन्हीं हंसों ने महाराज धृतराष्ट्र को यह श्राप दिया था कि वह अगले जन्म में नेत्रहीन पैदा होंगे और उनकी संतानों का भी वध ठीक इसी प्रकार से होगा।
धृतराष्ट्र और गांधारी का विवाह – Dhritarashtra’s Marriage
हस्तिनापुर के शीर्ष पर आसीन महाराज धृतराष्ट्र के लिए स्वयं भीष्म पितामह ने गांधार नरेश की पुत्री गांधारी का हाथ मांगा था। गांधार नरेश सुबल और उनके राजकुमार शकुनि पहले तो इस प्रस्ताव के लिए तैयार नहीं हुए थे।
क्योंकि वह अपनी बहन गांधारी का हाथ एक अंधे व्यक्ति के हाथ में नहीं देना चाहते थे। लेकिन राज्यों के राजनैतिक संबंधों के चलते गांधारी और उनके पिता इस विवाह के लिए राजी हो गए। तो वहीं पति की पीड़ा को महसूस करने की खातिर महारानी गांधारी ने भी जीवनभर के लिए अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली।
हालांकि महारानी गांधारी के उपरोक्त निर्णय से महाराज धृतराष्ट्र काफी क्रोधित भी हुए थे, क्योंकि वह अपनी पत्नी की आंखों से समस्त संसार के दर्शन करना चाहते थे। दूसरी ओर, महारानी गांधारी के सेवा भाव से प्रसन्न होकर महर्षि वेदव्यास ने उन्हें सौ पुत्रों का वरदान दिया था।
कहते है महर्षि वेदव्यास के वरदान अनुसार महारानी गांधारी लगभग दो वर्ष तक गर्भवती रही। जिससे घबराकर उन्होंने अपना गर्भ गिरा दिया। जब महर्षि वेदव्यास को यह ज्ञात हुआ तब उन्होंने महारानी गांधारी को सौ घी के कुंड बनवाने का आदेश दिया।
साथ ही गर्भ से निकले उन मांस के टुकड़ों को घी के कुंडों में डालने को कहा। जिससे महाराज धृतराष्ट्र और महारानी गांधारी को दुर्योधन और दुशासन समेत 100 पुत्रों की प्राप्ति हुई। साथ ही एक कन्या दुशाला भी उत्पन्न हुई। हालांकि 100 कौरव पुत्रों में से एक पुत्र युयुत्सु भी था।
जोकि महाराज धृतराष्ट्र के एक दासी के साथ सहवास करने से उत्पन्न हुआ था। जिसने महाभारत युद्ध के दौरान पांडवों का साथ दिया था।
महाराज धृतराष्ट्र ने किए थे कई पाप
महाराज धृतराष्ट्र सदैव से ही हस्तिनापुर पर एकाधिकार करना चाहते थे। यही कारण था कि उन्होंने अपने सबसे बड़े बेटे दुर्योधन को भी सदैव यही कहा कि आगे चलकर वह हस्तिनापुर का उत्तराधिकारी बनेगा।
इसी कारण महाराज धृतराष्ट्र ने सदैव ही पुत्र मोह के चलते दुर्योधन के कई अनुचित कार्यों में उसका साथ दिया। महाभारत काल के समय द्रौपदी चीरहरण एक ऐसी घटना थी, जिसे महाराज धृतराष्ट्र द्वारा रोका जा सकता था।
लेकिन मोह वश महाराज धृतराष्ट्र चुप रहे और आगे चलकर सबने इसका दोषी महाराज धृतराष्ट्र को ठहराया।
महाराज धृतराष्ट्र ने अपनी पत्नी गांधारी के परिवार को भी करागार में डाल दिया था। कहानी इस प्रकार है कि महाराज धृतराष्ट्र और गांधारी के विवाह से पहले गांधारी की कुंडली के दोष को दूर करने का उपाय किया गया था।
जिसके चलते महाराज धृतराष्ट्र से पहले गांधारी का विवाह एक बकरे से करवा दिया गया था। फिर उसकी बलि दी जाने के पश्चात् माता गांधारी विधवा कहलाई। ऐसे में एक विधवा से विवाह होने के चलते महाराज धृतराष्ट्र ने गांधार परिवार को काफी यातनाएं दी थी।
कहते हैं कि जिसका बदला महाराज धृतराष्ट्र से लेने के लिए गांधार राजकुमार शकुनि ने ही पांडवों और कौरवों के बीच महाभारत कराई।
महाभारत युद्ध के अंत में जब महाराज धृतराष्ट्र को यह मालूम पड़ा कि उनके प्रिय पुत्रों दुर्योधन और दुशासन को पांडव भीम ने मारा है। तब उन्होंने भीम को मारने की योजना बनाई। इस दौरान जब पांडव भाई महाराज धृतराष्ट्र से मिलने पहुंचे।
तब भीम का नाम सुनते ही महाराज धृतराष्ट्र ने उसे मारने के उद्देश्य से कसकर पकड़ लिया। हालांकि बाद में उन्हें ज्ञात हुआ कि वह भीम नहीं बल्कि भीम की मूर्ति थी। जिसे भगवान श्री कृष्ण ने भीम के स्थान पर रख दिया था।
महाराज धृतराष्ट्र ने संजय से सुना महाभारत युद्ध का हाल
महाभारत युद्ध के दौरान महाराज धृतराष्ट्र ने कौरवों का ही साथ दिया। वह अपने पुत्रों की ओर से ही युद्ध को श्रेष्ठ समझ रहे थे। जिसके चलते उन्होंने अपने सारथी संजय से पांडवों के पास यह समाचार पहुंचवाया था कि कौरवों के पास असीम बल और ताकत है।
इसलिए पांडव कौरवों से युद्ध ना करें। हालांकि वह न्यायसंगत तरीके से यह बात कौरवों को भी समझा सकते थे लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। परिणामस्वरूप, पांडवों से युद्ध में सभी कौरव मारे गए। अंत में महाराज धृतराष्ट्र के पास अपने पुत्रों के शवों पर रोने के अलावा कुछ शेष ना रह गया।
महाराज धृतराष्ट्र की मृत्यु कैसे हुई? – Dhritarashtra’s Death
महाभारत युद्ध के पश्चात् महाराज धृतराष्ट्र और माता गांधारी पांडवों के साथ जीवनयापन करने लगे थे। लेकिन महाराज धृतराष्ट्र मोक्ष प्राप्ति के उद्देश्य से जब जंगल की ओर बढ़े। माना जाता है कि तभी जंगल में लगी आग से उनका मूल हमेशा के लिए नष्ट हो गया।
इस प्रकार, महाराज धृतराष्ट्र ने लोभ, काम और मोह के वश में होकर अपने सम्पूर्ण जीवन को अंधकार में व्यतीत कर दिया।
