Vidya ka Mahatva
इस धरती पर मनुष्य ईश्वर की अद्वितीय व श्रेष्ठ रचना है। साथ ही मनुष्य की महत्ता उसकी विद्ता में है। मनुष्य सुंदर हो, यौवन संपन्न हो, उच्च कुल में उत्पन्न हुआ हो, परन्तु उसके पास विद्या नहीं हो तो उसकी कोई शोभा नहीं। इस प्रकार जैसे पुष्प की शोभा सुगंध से होती है, उसी प्रकार मनुष्य की शोभा विद्वान होने में है। तो वहीं हम कह सकते हैं कि विद्या उपयुक्त सभी धनों में सबसे श्रेष्ठ है।
विद्या का अर्थ
विद्या का अर्थ ज्ञान और शिक्षा से है। जिस साधन द्वारा मनुष्य कुछ जानता है, सीखता है, उसे विद्या कहते हैं।
वेत्ति न अनया इति विद्या।।
वस्तु विशेष के गुणाव गुणों की पूर्ण जानकारी विद्या से ही प्राप्त होती है। ऐसे में विद्या के अनेक रूप है। जैसे जिस विद्या के द्वारा मनुष्य को औषिधियों के गुण, दोष और शरीर पर उसके प्रभाव का ज्ञान होता है, उसे आयुर्वेद विद्या कहते हैं। तो वहीं जिससे पृथ्वी, नदी, सागर आदि का ज्ञान होता है, उसे भूगोल विद्या कहते है। जिससे विविध नक्षत्रों, तारा गणों और उनके प्रभाव का ज्ञान होता है, उसे नक्षत्र विद्या या ज्योतिष विद्या कहते हैं। धर्म और कर्तव्य संबंधी विद्या वेद विद्या हुई। मन को आनंद देने के साथ ही शिक्षा देने वाली विद्या साहित्य हुई। इसी प्रकार भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान आदि भी विज्ञान, शास्त्र और विधाएं हैं। उक्त सभी विद्याओं का ज्ञान एक ही व्यक्ति को नहीं हो सकता लेकिन जो इनमें से एक, दो या चार विद्या भी जानता है, वह विद्वान कहलाता है।
विद्या की विशेषता
विद्या एक ऐसा धन है जिसे चोर चुरा नहीं सकते, राजा छीन नहीं सकता, भाई बांट नहीं सकते और यह व्यय करने पर बढ़ती है। जहां एक ओर रुपया पैसा अन्न आदि ऐसे पदार्थ है जो खर्चने पर घटते हैं किन्तु विद्या रूपी धन ऐसा है जो खर्च करने पर बढ़ता है। विद्या के बल पर ही तो मनुष्य संसार का इतना विकास कर पाया है।
ऐसे में हमें जो दिन प्रतिदिन नए आविष्कार अपने आस पास दिखाई दे रहे हैं, अनन्त वैभव दिखाई दे रहा है, उसके मूल में विद्या ही है लेकिन यह भी सत्य है कि विद्या बिना कष्ट के नहीं मिलती है। विद्या प्राप्ति के लिए सारे सुख त्यागने पड़ते हैं, तपस्या करनी पड़ती है, सुख की कामना करके कोई विद्या नहीं पा सकता है। इसलिए कहा भी गया है कि-
सुखार्थी चेत् त्ज़येत् विद्या विद्यार्थी चेत् त्ज़येत् सुखम्।
सुखार्थिन कुतो विद्या विद्यार्थिन कुछ सुखम् ।।
तात्पर्य यह है कि विद्वान व्यक्ति यश प्राप्त करता है, सम्मान पाता है, पूजित होता है तो वहीं इसके विपरित अविद्वान को कोई नहीं पूछता है। यदि कोई मूर्ख व्यक्ति सुंदर वस्त्र पहनकर भी विद्वानों की सभा में पहुंच जाए तो उसका आदर नहीं होता, क्यूंकि उसमें विद्या नहीं।
विद्या प्राप्ति का महत्व
वैसे तो विद्या के अनेक गुण है लेकिन उसका प्रमुख गुण है नम्रता प्रदान करना और योग्यता का विस्तार करना। इतना ही नहीं विद्या का जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है। मनुष्य का रूप, धन, यश, सुख और सम्मान विद्या में निहित है। ऐसे में एक विद्वान मनुष्य ही समाज में उच्च स्थान और सुख प्राप्त करता है। साथ ही राजा का मान अपने ही देश में होता ही लेकिन एक विद्वान व्यक्ति सर्वस्व पूजा जाता है। किसी ने सही कहा है कि-
विद्या देती विनय को, विनय पात्रता मित्त।
पात्रत्वै धन, धरम, धरम बढ़ावै सुख नित्त।।
विद्या से ही मनुष्य में नम्रता आती है। नम्रता से योग्यता आती है। योग्यता से मनुष्य धन कमाता है। धन से वह धर्म और कर्तव्य का आचरण करता है और धर्म के आचरण से सुख की प्राप्ति होती है।
उपसंहार
इसलिए कहा जाता है कि मनुष्य को विद्या प्राप्ति के लिए निरंतर प्रयास करते रहना चाहिए। विद्या गुरुजनों की सेवा से, अत्यधिक धन से या एक विद्या देकर बदले में दूसरी विद्या देने से मिलती है पर विद्या प्राप्ति के लिए नम्रता और साधना आवश्यक गुण है। ऐसे में विद्या कहीं से मिले, उसे अवश्य ही ग्रहण करना चाहिए। क्यूंकि यदि मनुष्य के पास विद्या है, तो वह कभी भी भूखा नहीं रह सकता है। साथ ही हमें मान, प्रतिष्ठा, यश, और लक्ष्मी देने वाली विद्या की आराधना में निरंतर तत्पर रहना चाहिए।
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