Paropkar Par Nibandh
गोस्वामी तुलसीदास के अनुसार – “पर हित सरिस धर्म नहि भाई”। अर्थात् परोपकार के समान दूसरा कोई धर्म नहीं है। साथ ही दूसरों के लिए अपना सर्वस्व त्याग देना ही सबसे बड़ा धर्म व पुण्य है।
प्रस्तावना
परोपकार दो शब्दों से मिलकर बना है पर + उपकार। जिसका तात्पर्य बिना किसी फल की इच्छा और पवित्र भावना से दूसरों का हित करने से है। इस संसार में मानव का जीवन बड़ी ही मुश्किल से मिलता है। जिसकी सफलता परोपकार करने से है।
ऐसे में जिन मनुष्यों में यह दिव्य गुण होता है, वह ही मनुष्य कहलाने के अधिकारी हैं अन्यथा जिनमें यह गुण विघमान नहीं, वह पशु तुल्य हैं क्यूंकि मनुष्य और पशु में यही अंतर होता है कि पशु हित अहित की भावना से परे होता है।
उसके लिए परोपकार का कोई महत्व नहीं, वह जो कुछ भी करता है वह अपने लिए ही करता है। ऐसे में जो मनुष्य बहुत लोभी और स्वार्थी होता है, उसे पशु से भी नीच की संज्ञा दी जाती है। साथ ही यदि मनुष्य को प्रकृति से बुद्धि और विवेक मिला है, तो उससे अवश्य ही परोपकार की अपेक्षा की जाती है।

परोपकार का महत्व
ईश्वर द्वारा प्रदत्त मानव जीवन की सार्थकता इसी में निहित है कि हम अपने स्वार्थ से परे हटकर दूसरे के हित के बारे में सोचें। स्वयं ईश्वर ने प्रकृति के सहारे इस संसार का भरपूर कल्याण किया क्यूंकि वह प्रकृति ही है जिसने मानव को सदैव खुले मन से दिया ही है, बदले में कभी कुछ लिया नहीं है।
आज परोपकार की आवश्यकता इसलिए है ताकि हम दूसरों के आंसुओं का आदर करना सीखें, दीन और असहायों की मदद करें, दूसरों के दुख सुनकर उनको समझें। साथ ही किसी रोगी की सेवा करना, अशिक्षितों को शिक्षा प्रदान करें, प्यासे को पानी पिलाएं, अंधे को मार्ग दिखाएं इत्यादि परोपकार के ही स्वरूप हैं।
वैसे तो हमारे सामने परोपकार के कई उदाहरण हैं, जैसे कि ऋषि दधीचि ने विश्व कल्याण के लिए देवताओं द्वारा उनकी अस्थियां मांगने पर जरा भी संकोच नहीं किया था। इसके अलावा राजा शिवि ने एक कबूतर के प्राणों को बचाने के लिए अपने मांस का टुकड़ा काटकर दे दिया था।
साथ ही परोपकार की भावना से ओत प्रोत त्याग की भावना पूर्ण रूप से प्रकृति में भी दिखाई देती है। ऐसे में सूर्य जो हमें अनवरत प्रकाश और ऊर्जा देता है, उसके बिना धरती पर हम जीवन की कल्पना नहीं कर सकते हैं।
विशाल पेड़ हारे थके यात्री के लिए अपने नीचे सदा छाया किए रहते हैं, ताकि कोई आकर चैन से सुख की नींद सोए। साथ ही वृक्षों से हमें असंख्य फल निस्वार्थ भाव से प्राप्त होते हैं। तो वहीं प्राणियों को जीवित रखने के लिए वायु प्राण देती है, बादल धरती पर वर्षा करके अन्न की उपलब्धता सुलभ करवाते हैं।
जिसके बदले में वह हमसे कुछ नहीं मांगते क्यूंकि परोपकारी व्यक्ति दोनों हाथों से अपना सब कुछ दूसरों के हित में लुटा देता है, बिना किसी अभिलाषा के। जिसके चलते महर्षि वेदव्यास ने परोपकार को कुछ ऐसे वर्णित किया है-
“परोपकार पुण्याय पापाय पर पीडनम्”
यानि यदि आप जीवन में पुण्य कमाना चाहते हैं तो परोपकार कीजिए। लेकिन यदि जीवन में पापों का संचय करना चाहते हैं तो दूसरे प्राणियों को दुख पहुंचाए।
उपसंहार
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि जितना अधिक परोपकार का आदर्श लेकर मनुष्य अपने कर्म का चिंतन करेगा और उसे कार्य रूप में परिणत करेगा, वहीं श्रेष्ठ मानव कहलाता है। साथ ही परोपकार करने से हृदय को खुशी मिलती है और मन को अपार संतोष की प्राप्ति होती है। इसलिए मनुष्य को अपनी सामर्थ्य के अनुसार परोपकार करना चाहिए।
इसके साथ ही हमारा आर्टिकल – Paropkar Par Nibandh समाप्त होता है। आशा करते हैं कि यह आपको पसंद आया होगा। ऐसे ही अन्य कई निबंध पढ़ने के लिए हमारे आर्टिकल – निबंध लेखन को चैक करें।